श्रीराग, भक्त बैनी जी के शब्द: "पेहरे" की धुन पर गाया जाएगा:
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
हे मानव ! जब तुम मातृ-गर्भ में थे तो तुम ईश्वर के स्मरण में लीन थे।
उस समय तुझे पार्थिव देह की गरिमा का अहंकार नहीं था और अज्ञानी एवं पूर्ण विहीन होने के कारण तुम दिन-रात एक हरि की आराधना करते थे।
कष्ट एवं दुखों के वह दिन स्मरण कर, अब तुमने अपने मन के जाल को सांसारिक मोह माया में अत्याधिक फैला लिया है।
हे मानव ! जब से गर्भ को त्याग कर तू इस नश्वर संसार में आया है, तब से तूने ईश्वर को अपने मन से विस्मृत कर दिया ॥१॥
हे मूर्ख ! तुम क्यों कुमति वश भ्रमित हो रहे हो, तुम्हें फिर पछताना पड़ेगा।
हे मानव ! मूखों की भाँति क्यों भटकते फिरते हो? राम का चिन्तन कर, अन्यथा तुम्हें मृत्यु के भय का सामना करना पड़ेगा। ॥१॥रहाउ॥
बचपन में तुम अपने मनपसंद क्रीड़ा-विनोद के स्वाद में लीन रहे0, सांसारिक सुखों के प्रति तेरी आसक्ति क्षण-क्षण बढ़ रही थी।
जब तुमने विष रूपी माया के रसों को पवित्र समझ कर भोग किया तो काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार जैसे पांचों विकार तुम्हें व्यथित करने लगे हैं।
तूने जप, तप, संयम एवं शुभ कर्मों वाली बुद्धि छोड़ दी है; तू राम नाम की आराधना भी नहीं करता।
जब तेरे अन्तर्मन में कामवासना का वेग तरंगें मार रहा था; तुम्हारी बुद्धि पर बुरे विचारों का अंधकार छा गया था तब तुम अपनी कामपिपासा को संतुष्ट करने हेतु स्त्री को लाकर उससे बँध गए ॥ २॥
यौवन के जोश में तू पराई-नारियों को देखता है और भले-बुरे की पहचान नहीं करता।
तुम कामवासना में मग्न रहकर विष रूपी प्रबल माया के मोह में फँसकर भटकता रहते हो ; फिर तू पाप एवं पुण्य की पहचान नहीं कर पाते हो।
अपने पुत्रों एवं सम्पति को देखकर तेरा यह मन अहंकारी हो गया है और अपने हृदय से तूने राम को विस्मृत कर दिया है।
हे मानव ! सगे-सम्बन्धियों की मृत्यु पर तू अपने मन में सोचता है कि तुझे उसका कितना धन प्राप्त होगा सौभाग्य से मिले अपने अमूल्य जीवन को तूने व्यर्थ ही खो दिया हैं॥ ३॥
वृद्धावस्था में तुम्हारे केश चमेली के फूलों से भी अधिक सफेद हैं और तेरी वाणी इतनी धीमी पड़ गई है, जैसे वह सातवें लोक से आती हो।
तेरे नेत्रों से जल बह रहा है; तेरी बुद्धि एवं बल शरीर में से लुप्त हो गए हैं; ऐसी अवस्था में काम तेरे मन में से यूं मंथन करता है, जैसे दूध का मंथन किया जाता है।
इन विकारों के कारण तुम्हारी बुद्धि कलुषित हो गई है और तुम्हारे शरीर ने अपनी शक्ति और कान्ति खो दी है, मानो तुम्हारे शरीर रूपी कमल मुरझा गया हो।
तुम अलक्ष्य प्रभु की दिव्य वाणी को छोड़कर नश्वर जगत् के कार्यों में लीन हो रहे हो, तदुपरांत तुम पश्चाताप करोगे ॥४॥
छोटे-छोटे बच्चों (पोते-पोतियों) को देखकर प्यार और गर्व की भावना तो जागती है लेकिन फिर भी यह समझ नहीं आता कि जल्द ही सब कुछ छोड़कर चले जाना होगा।
यहाँ तक कि किसी जीव को चाहे नेत्रों से कुछ भी दिखाई नहीं देत फिर भी वह लम्बी आयु की लालच करता है।
अंतत: शरीर का बल क्षीण हो जाता है और प्राण पखेरू शरीर रूपी पिंजरे में से उड़ जाते हैं। घर के आंगन में पड़ा मृतक शरीर किसी को अच्छा नहीं लगता।
भगत वेणी जी कहते हैं, हे भक्तों ! सुनो, मृत्यु के पश्चात किसने मुक्ति प्राप्त की है ॥५॥
सिरीरागु॥
हे प्रभु ! तू ही मैं हूँ और मैं ही तुम हूँ।; तेरे और मेरे बीच कोई अन्तर नहीं है।
यह अन्तर ऐसा है जैसे स्वर्ण एवं स्वर्ण से बने आभूषण का है; जैसे जल एवं इसकी लहरों में है; वैसे ही प्राणी और ईश्वर है॥ १ ॥
हे अनंत परमेश्वर ! यदि मैं पाप न करता;
तो तेरा पतितपावन नाम कैसे होता ? ॥१॥ रहाउ॥
आप मेरे स्वामी हैं, अंतर्यामी हैं, हृदयों के अन्वेषक हैं।
(किन्तु तथ्य यह है कि)प्रभु से उसके दास की एवं दास से उसके स्वामी की पहचान हो जाती है। ॥ २॥
हे प्रभु ! मुझे यह ज्ञान दीजिए कि जब तक मेरा यह शरीर है, तब तक मैं तेरा नाम-सिमरन करता रहूँ।
भक्त रविदास जी का कथन है कि हे प्रभु ! मेरी यही कामना है कि कोई महापुरुष आकर मुझे यह ज्ञान दे जाए कि आप सर्वव्यापी हैं ॥३॥