सतगुरु के मिलन से प्रायः हृदय में परमात्मा का भय रहता है और वह स्वयं ही मन में आकर निवास करता है॥ १॥
हे जीव ! गुरुमुख होकर कोई दुर्लभ ही इस भेद को जान सकता है।
इस भेद को समझे बिना कर्म करने से सम्पूर्ण जीवन को व्यर्थ ही बिताना है॥ १॥ रहाउ ॥
जिसने नाम-रस को चखा है, उसी ने इसका स्वाद पाया है, अर्थात्-जिस जीव ने प्रभु-नाम का सिमरन किया, उसी ने इसका आनंद अनुभव किया है, नाम-रस चखे बिना तो वह भ्रम में ही भटकते हैं।
परमात्मा का सत्य नाम अमृत समान है, उसका आनंद वर्णन नहीं किया जा सकता।
जिस जीव ने इस नामामृत का पान किया, यह पीते ही उस प्रभु के दरबार में स्वीकृत हो गया तथा वह परिपूर्ण परब्रह्म में अभेद हो गया ॥ २ ॥
यह नाम भी यदि वह प्रभु स्वयं कृपालु होकर प्रदान करे तो मिलता है अन्यथा और कुछ नहीं किया जा सकता।
उस देने वाले प्रभु के हाथ में ही यह आशीर्वाद है लेकिन उस दाता को गुरु द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
जीव ने पूर्व जन्म में जो कर्म किए हैं, उनके अनुसार ही अब फल प्राप्त हुआ है और जो वर्तमान में कर्म वह कर रहा है, उस अनुसार फल भविष्य में प्राप्त होगा ॥ ३ ॥
संयम, सत्य और इन्द्रिय-निग्रह ये सभी नाम के अंतर्गत आते हैं, नाम के बिना मन निर्मल नहीं होता।
सौभाग्य से ही जीव के मन में नाम बसता है, जिससे परमात्मा से मिलाप होता है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि जो जीव स्वाभाविक ही प्रभु के प्रेम-रंग में रमण करता है, वही हरि-गुणों को प्राप्त करता है ॥ ४॥ १७ ॥ ५0॥
सिरीरागु महला ३ ॥
चाहे यदि जीव शरीर द्वारा साधना कर ले, कठिन तप कर ले, किन्तु यह सब कर लेने से उसके अंतर्मन से अहंत्व नहीं मिट जाता।
आत्म-ज्ञान हेतु किए जाने वाले बाह्य कर्म भी कर ले, तब भी वह कभी प्रभु-नाम प्राप्त नहीं कर सकता।
परंतु जो जीव गुरु-उपदेश द्वारा जीवित मरता है अर्थात मोह -माया से अनासक्त होता है, उसके हृदय में आकर ही प्रभु का नाम बसता है॥ १॥
हे मेरे जीव रूपी मन ! सुनो, तुम सतगुरु की शरण में जाओ।
गुरु की कृपा से तुम्हारा उद्धार होगा। गुरु के वचन के द्वारा तुम विष के भयंकर संसार-सागर को पार कर जाओगे। ||१||विराम||
समस्त जीव त्रिगुणात्मक माया की ओर भागते हैं और इसमें जो द्वैत-भाव है, वही विकारों की उत्पत्ति करने वाला है।
वेद-शास्त्रादि को पढ़ने वाला पंडित भी मोहपाश में बँधा हुआ है, तथा माया के वश में होने के कारण परमात्मा को भी नहीं बूझता।
अर्थात् जीव गुरु चरणों में लगकर पाप, गुण और शक्ति के तीन अवस्थाओं से मुक्त होकर मोक्ष की चौथी अवस्था को प्राप्त करता है। ॥ २॥
यदि गुरु के उपदेश द्वारा ज्ञान-भक्ति रूपी मार्ग पर जीव चले तो मोह रूपी गर्द(धुंद) दूर हो जाती है।
यदि जीव गुरु के उपदेश में लीन होकर माया के मोह से मृत हो जाए तो वह भवसागर से तर जाता है।
गुरु की कृपा से मनुष्य सृष्टिकर्ता के सच्चे नाम से जुड़ा रहता है। ||३||
यह चंचल मन अत्यंत बलशाली है, किसी भी यत्न से यह मन जीव को नहीं छोड़ता।
द्वैत-भाव वालों को यह मन कष्ट देता है तथा बहुत यातना देता है।
गुरु जी कथन करते हैं कि जो जीव गुरु उपदेश द्वारा अहंत्व को गंवा कर नाम-सिमरन में लीन रहते हैं, वे यमों की यातना से बच गए हैं ॥ ४॥ १८ ॥ ५१॥
सिरीरागु महला ३ ॥
जब परमेश्वर कृपा करता है, तब गुरु की प्राप्ति होती है, और गुरु हरिनाम को दृढ़ करवा देता है।
गुरु के बिना हरिनाम को किसी ने भी प्राप्त नहीं किया और नामहीन व्यक्तियों ने अपना जन्म व्यर्थ गंवाया है।
अपने मन की बात मान कर जो व्यक्ति कर्म करते हैं, उन्हें परमात्मा की सभा में सजा मिलती है॥ १॥
हे मन ! तू द्वैत-भाव को दूर कर दे।
क्योंकि तेरे अंदर हरि का वास है, उसकी प्राप्ति के लिए गुरु की सेवा करो, तभी सुखों की प्राप्ति होगी॥ रहाउ॥
जब जीव सत्य-स्वरूप परमात्मा से प्रेम करता है तो उसके वचन एवं कर्म सत्य हो जाते हैं।
परमात्मा का नाम मन में बस जाए तो अहम् व क्रोधादि समस्त विकार निवृत्त हो जाते हैं।
निर्मल मन से प्रभु के नाम का ध्यान करने से ही जीव मोक्ष द्वार को प्राप्त करता है॥ २॥
अहंकार में ही सम्पूर्ण जगत् नष्ट होता है तथा पुनःपुनः आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है।
स्वेच्छाचारी जीव गुरु-उपदेश को नहीं जानते, इसलिए वे अपना सम्मान खो कर चले जाएँगे।
गुरु-सेवा द्वारा प्रभु नाम प्राप्त होता है और उस सत्य स्वरूप परमात्मा में लीन होते हैं। ॥ ३॥