गुरु के उपदेश के बिना संसार माया के प्रति प्रेम के कारण कष्टों में भटकता रहता है, जिसने स्वेच्छाचारी लोगों को भस्म कर दिया है।
शब्द द्वारा मनुष्य नाम-सिमरन करता है और शब्द द्वारा ही वह भगवान् में समा जाता है ॥४॥
माया में फँसकर सिद्ध पुरुष भी भटकते रहते हैं और भगवान् के प्रेम में लीन करने वाली उनकी समाधि नहीं लगती।
माया आकाश, पाताल, धरती तीनों लोकों में जीवों को अपने मोह में फँसा रही है। वह समस्त जीवों को अत्याधिक लिपटी हुई है।
गुरु के बिना माया से मुक्ति प्राप्त नहीं होती और न ही माया से उत्पन्न द्वंद का समाधान मिलता है। ॥५॥
माया किसे कहते हैं? माया क्या कार्य करती है?
माया के प्रभाव में मनुष्य दुःख व सुख के भीतर बंधा हुआ है और दंभ या अहंकारवश कर्म करता है।
गुरु शब्द के बिना भ्रम दूर नहीं होता और न ही अन्तर्मन से अहंकार दूर होता है ॥६॥
प्रेम के बिना भगवान् की भक्ति नहीं हो सकती और नाम के अतिरिक्त मनुष्य को प्रभु के दरबार में स्थान नहीं मिलता।
जब अहंत्च को नाम द्वारा मार दिया जाता है तो माया का पैदा किया भ्रम दूर हो जाता है।
गुरमुख सहज ही हरि-नाम के धन को प्राप्त कर लेता है ॥७॥
गुरु के बिना शुभ गुणों का पता नहीं लगता तथा शुभ गुण ग्रहण किए बिना भगवान् की भक्ति नहीं होती।
भक्तवत्सल श्री हरि मनुष्य के भीतर मन में निवास करते हैं। इसका एहसास तभी होता है जब कोई आध्यात्मिक संतुलन की सहज अवस्था अर्थात् स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
हे नानक ! किस्मत से ही सतगुरु की प्राप्ति होती है और गुरु के शब्द द्वारा ही भगवान् की महिमा-स्तुति करनी चाहिए ॥८॥४॥२१॥
श्रीरागु महला ३ ॥
भगवान् ने स्वयं ही माया-मोह की रचना की है। उसने स्वयं ही जीवों को माया के मोह में फंसा कर भुलाया हुआ है।
मनमुख कर्म तो करते हैं परन्तु उन्हें इसकी सूझ नहीं होती। लेकिन वह अपना जीवन व्यर्थ ही खो देते हैं।
गुरुवाणी इस संसार में ईश्वरीय प्रकाश है। प्रभु की दया से प्राणी के मन में यह वाणी आकर बसती है ॥१॥
हे मेरे मन ! भगवान् का नाम जपो, इससे ही सुख की उपलब्धि होती है।
पूर्ण गुरु की महिमा करने से परमेश्वर सहज ही प्राणी को मिल जाता है ॥१॥ रहाउ॥
ईश्वर के चरणों में चित्त लगाने से मनुष्य का माया का भ्रम एवं मृत्यु के भय का नाश हो जाता है।
जिज्ञासु प्राणी जब गुरु-कृपा से भगवत् नाम की आराधना करता है तो ईश्वर स्वयं उसके हृदय में निवास करता है।
मनुष्य सत्य प्रभु के आत्म स्वरूप रूपी महल के अन्दर लीन हो जाता है और यमदूत उसे कदापि नहीं निगल सकता ॥२॥
नाम दैव नामक मुद्रक और कबीर नामक बुनकर ने पूर्ण गुरु के माध्यम से मोक्ष प्राप्त किया।
वे गुरु-शब्द का ज्ञान पाकर ब्रह्मज्ञानी बने और उन्होंने अपनी निम्न जातिगत स्थिति के गौरव अथवा अहंत्व का पूर्ण त्याग कर दिया।
देवते एवं मनुष्य उनकी पावन वाणी का गायन करते है। उनकी शोभा कोई भी मिटा नहीं सकता ॥३॥
दैत्य हिरण्यकशिपु का पुत्र भक्त प्रहलाद कोई धर्म-कर्म नहीं करता था। वह मन को स्थिर करने वाली संयम, ध्यान एवं समाधि रूप विधियों बारे कुछ भी नहीं जानता था। वह माया के मोह को नहीं जानता था।
सतगुरु से मिलकर वह निर्मल हो गया था वह रात-दिन नाम का जाप करता था
और एक नाम को ही जानता था तथा अन्य किसी दूसरे को नहीं जानता था ॥४॥
छः शास्त्रों के उपदेशों को मानने वाले योगी, संन्यासी इत्यादि गुरु के बिना संदेह में भूले पड़े हैं।
यदि वे सतगुरु की सेवा का सौभाग्य प्राप्त करें तो वे मोक्ष एवं ईश्वर को खोजने में समर्थ होते हैं और पूज्य हरि को अपने चित्त में टिका लेते हैं।
सच्ची गुरुवाणी से उनका मन जुड़ जाता है और उनका आवागमन (जन्म-मरण के चक्र से) मिट जाता है। ॥ ५॥
गुरु के बिना भ्रम में भूले हुए पण्डित शास्त्र इत्यादि का अध्ययन करके वाद-विवाद करते हैं, किन्तु शब्द के बिना उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं होता,
वे चौरासी लाख योनियों में भटकते फिरते हैं। जब ईश्वर की अनुकंपा होती है तो सतगुरु से मिलन होता है।
और जब सतगुरु के उपदेशानुसार नाम की आराधना करते हैं, तब वह गति प्राप्त करते हैं। ॥ ६॥
यदि प्राणी का गुरु से मिलन हो जाए तो सत्संग के कारण वह हरि-नाम स्मरण कर पाता है।