श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 15


ਨਾਨਕ ਕਾਗਦ ਲਖ ਮਣਾ ਪੜਿ ਪੜਿ ਕੀਚੈ ਭਾਉ ॥
नानक कागद लख मणा पड़ि पड़ि कीचै भाउ ॥

सतगुरु जी कथन करते हैं कि लाखों मन कागज़ पढ़-पढ़ कर, अर्थात् अनेकानेक शास्त्रों व धर्म ग्रंथों का अध्ययन करके, ईश्वर से प्रेम किया जाए।

ਮਸੂ ਤੋਟਿ ਨ ਆਵਈ ਲੇਖਣਿ ਪਉਣੁ ਚਲਾਉ ॥
मसू तोटि न आवई लेखणि पउणु चलाउ ॥

उसकी स्तुति लिखने हेतु स्याही का भी अभाव न हो और कलम पवन की भाँति चलती रहे।

ਲੇਖੈ ਬੋਲਣੁ ਬੋਲਣਾ ਲੇਖੈ ਖਾਣਾ ਖਾਉ ॥
लेखै बोलणु बोलणा लेखै खाणा खाउ ॥

हे मानव ! शब्दों का बोलना सीमित है। खाना-पीना भी सीमित है।

ਲੇਖੈ ਵਾਟ ਚਲਾਈਆ ਲੇਖੈ ਸੁਣਿ ਵੇਖਾਉ ॥
लेखै वाट चलाईआ लेखै सुणि वेखाउ ॥

मार्ग पर चलने की सीमा बंधी हुई है, देखने व श्रवण करने की सीमा निश्चित है।

ਲੇਖੈ ਸਾਹ ਲਵਾਈਅਹਿ ਪੜੇ ਕਿ ਪੁਛਣ ਜਾਉ ॥੧॥
लेखै साह लवाईअहि पड़े कि पुछण जाउ ॥१॥

यहाँ तक की स्रष्टा (प्रभु) ने जो तुझे श्वास प्रदान किए हैं उनके लेने की भी सीमा है, (इसकी पुष्टि हेतु) किसी विद्वान से पूछने की क्या आवश्यकता है ॥ १॥

ਬਾਬਾ ਮਾਇਆ ਰਚਨਾ ਧੋਹੁ ॥
बाबा माइआ रचना धोहु ॥

इसलिए हे जीव ! यह सांसारिक माया सब-कुछ कपट है।

ਅੰਧੈ ਨਾਮੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਨਾ ਤਿਸੁ ਏਹ ਨ ਓਹੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
अंधै नामु विसारिआ ना तिसु एह न ओहु ॥१॥ रहाउ ॥

जिस अज्ञानी ने परमात्मा का नाम अपने हृदय से विस्मृत कर दिया, उसके हाथ न तो यह माया आई और न उसे परमात्मा की प्राप्ति हुई है ॥ १॥ रहाउ॥

ਜੀਵਣ ਮਰਣਾ ਜਾਇ ਕੈ ਏਥੈ ਖਾਜੈ ਕਾਲਿ ॥
जीवण मरणा जाइ कै एथै खाजै कालि ॥

जन्म से लेकर मृत्यु काल तक मानव इस संसार में अपने सम्बन्धियों के संग सांसारिक पदार्थों का भोग करता रहता है।

ਜਿਥੈ ਬਹਿ ਸਮਝਾਈਐ ਤਿਥੈ ਕੋਇ ਨ ਚਲਿਓ ਨਾਲਿ ॥
जिथै बहि समझाईऐ तिथै कोइ न चलिओ नालि ॥

किन्तु जिस धर्मराज की सभा में बिठा कर जीव को उसके कर्मों का लेखा बताया जाता है, वहाँ तक जाने के लिए अथवा वहाँ उसकी सहायता करने हेतु कोई साथ नहीं चलता।

ਰੋਵਣ ਵਾਲੇ ਜੇਤੜੇ ਸਭਿ ਬੰਨਹਿ ਪੰਡ ਪਰਾਲਿ ॥੨॥
रोवण वाले जेतड़े सभि बंनहि पंड परालि ॥२॥

मृत्यु के पश्चात् जो रोते हैं वे सभी व्यर्थ का भार बांधते हैं अर्थात् वे रोने का व्यर्थ-कर्म करते हैं। ॥ २ ॥

ਸਭੁ ਕੋ ਆਖੈ ਬਹੁਤੁ ਬਹੁਤੁ ਘਟਿ ਨ ਆਖੈ ਕੋਇ ॥
सभु को आखै बहुतु बहुतु घटि न आखै कोइ ॥

परमात्मा को प्रत्येक अधिक ही अधिक ही कहता है, अल्प कोई नहीं कहता।

ਕੀਮਤਿ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਈਆ ਕਹਣਿ ਨ ਵਡਾ ਹੋਇ ॥
कीमति किनै न पाईआ कहणि न वडा होइ ॥

किन्तु उसका मूल्यांकन कोई नहीं कर सकता, कहने मात्र से वह बड़ा अथवा महान् नहीं होता है।

ਸਾਚਾ ਸਾਹਬੁ ਏਕੁ ਤੂ ਹੋਰਿ ਜੀਆ ਕੇਤੇ ਲੋਅ ॥੩॥
साचा साहबु एकु तू होरि जीआ केते लोअ ॥३॥

सत्य स्वरूप निरंकार तू सिर्फ़ एक ही है, तथा अन्य प्राणियों के हृदय में ज्ञान का प्रकाश करने वाला है ॥३॥

ਨੀਚਾ ਅੰਦਰਿ ਨੀਚ ਜਾਤਿ ਨੀਚੀ ਹੂ ਅਤਿ ਨੀਚੁ ॥
नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु ॥

निम्न में जो निम्न जाति के लोग हैं और फिर उनमें भी जो अति निम्न प्रभु भक्त हैं।

ਨਾਨਕੁ ਤਿਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਾਥਿ ਵਡਿਆ ਸਿਉ ਕਿਆ ਰੀਸ ॥
नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस ॥

सतगुरु जी कहते हैं कि हे निरंकार ! उनके साथ मेरा मिलाप करो, माया व ज्ञानाभिमान के कारण जो बड़े हैं उनसे मेरी क्या समानता है।

ਜਿਥੈ ਨੀਚ ਸਮਾਲੀਅਨਿ ਤਿਥੈ ਨਦਰਿ ਤੇਰੀ ਬਖਸੀਸ ॥੪॥੩॥
जिथै नीच समालीअनि तिथै नदरि तेरी बखसीस ॥४॥३॥

जिस स्थान पर उन निम्न व्यक्तियों की सम्भाल की जाती है, वहाँ पर ही, हे कृपासागर ! मेरे प्रति तेरी कृपा होगी ॥ ४॥ ३॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥

सिरीरागु महला १ ॥

ਲਬੁ ਕੁਤਾ ਕੂੜੁ ਚੂਹੜਾ ਠਗਿ ਖਾਧਾ ਮੁਰਦਾਰੁ ॥
लबु कुता कूड़ु चूहड़ा ठगि खाधा मुरदारु ॥

लोभ करने वाला कुत्ते के समान, मिथ्या बोलने वाला भंगी, छल-कपट से दूसरे को खाने वाला शव-भक्षक होता है।

ਪਰ ਨਿੰਦਾ ਪਰ ਮਲੁ ਮੁਖ ਸੁਧੀ ਅਗਨਿ ਕ੍ਰੋਧੁ ਚੰਡਾਲੁ ॥
पर निंदा पर मलु मुख सुधी अगनि क्रोधु चंडालु ॥

दूसरे की निंदा करने से मुँह में सर्वथा पराई मैल पड़ती है, क्रोधाग्नि से मनुष्य चाण्डाल का रूप धारण कर लेता है।

ਰਸ ਕਸ ਆਪੁ ਸਲਾਹਣਾ ਏ ਕਰਮ ਮੇਰੇ ਕਰਤਾਰ ॥੧॥
रस कस आपु सलाहणा ए करम मेरे करतार ॥१॥

आत्म-प्रशंसा खट्टे-मीठे रसों का पदार्थ है, हे करतार ! यही तुम से विमुख करने वाले अस्मदादिक जीवों के कर्म हैं। ॥ १॥

ਬਾਬਾ ਬੋਲੀਐ ਪਤਿ ਹੋਇ ॥
बाबा बोलीऐ पति होइ ॥

हे मानव ! ऐसे वचन करो जिनसे प्रतिष्ठित हुआ जाए।

ਊਤਮ ਸੇ ਦਰਿ ਊਤਮ ਕਹੀਅਹਿ ਨੀਚ ਕਰਮ ਬਹਿ ਰੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
ऊतम से दरि ऊतम कहीअहि नीच करम बहि रोइ ॥१॥ रहाउ ॥

क्योंकि जो जीव इस लोक में श्रेष्ठ हैं वही परमात्मा के द्वार पर भी उत्तम कहे जाते हैं और मंद कर्मी जीवों को नरकों के कष्ट भोग कर रोना पड़ता है। ॥१॥ रहाउ ॥

ਰਸੁ ਸੁਇਨਾ ਰਸੁ ਰੁਪਾ ਕਾਮਣਿ ਰਸੁ ਪਰਮਲ ਕੀ ਵਾਸੁ ॥
रसु सुइना रसु रुपा कामणि रसु परमल की वासु ॥

(मानव मन में) सोने के आभूषणों का प्रेम है, चांदी के प्रति स्नेह है, सुंदर स्त्री के भोग का रस है, सुगन्धि का प्यार है,

ਰਸੁ ਘੋੜੇ ਰਸੁ ਸੇਜਾ ਮੰਦਰ ਰਸੁ ਮੀਠਾ ਰਸੁ ਮਾਸੁ ॥
रसु घोड़े रसु सेजा मंदर रसु मीठा रसु मासु ॥

घुड़सवारी की प्रीत है, आकर्षक सेज पर सोने व भव्य महलों में रहने की चाह है, मीठे पदार्थों के खाने तथा मांस-मदिरा सेवन करने की लगन है।

ਏਤੇ ਰਸ ਸਰੀਰ ਕੇ ਕੈ ਘਟਿ ਨਾਮ ਨਿਵਾਸੁ ॥੨॥
एते रस सरीर के कै घटि नाम निवासु ॥२॥

ये जो कथन किए हैं, ये सभी रसानंद शरीर में विद्यमान हो रहे हैं तो परमात्मा का नाम-रस अंत: करण के किस स्थान पर निवास करे ॥२॥

ਜਿਤੁ ਬੋਲਿਐ ਪਤਿ ਪਾਈਐ ਸੋ ਬੋਲਿਆ ਪਰਵਾਣੁ ॥
जितु बोलिऐ पति पाईऐ सो बोलिआ परवाणु ॥

जो वचन बोलने से प्रतिष्ठा प्राप्त होती है वही कथन परमात्मा के दरबार में स्वीकृत होता है।

ਫਿਕਾ ਬੋਲਿ ਵਿਗੁਚਣਾ ਸੁਣਿ ਮੂਰਖ ਮਨ ਅਜਾਣ ॥
फिका बोलि विगुचणा सुणि मूरख मन अजाण ॥

हे अज्ञानी मन ! सुन, नीरस वचन बोलने वाला व्यक्ति दु:खी होता है।

ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵਹਿ ਸੇ ਭਲੇ ਹੋਰਿ ਕਿ ਕਹਣ ਵਖਾਣ ॥੩॥
जो तिसु भावहि से भले होरि कि कहण वखाण ॥३॥

जो परमेश्वर को भले लगते हैं वही वचन श्रेष्ठ हैं, और क्या कथन व गुणगान किया जाए ॥ ३॥

ਤਿਨ ਮਤਿ ਤਿਨ ਪਤਿ ਤਿਨ ਧਨੁ ਪਲੈ ਜਿਨ ਹਿਰਦੈ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
तिन मति तिन पति तिन धनु पलै जिन हिरदै रहिआ समाइ ॥

उन व्यक्तियों की बुद्धि, प्रतिष्ठा व दैवी सम्पदा रूपी धन श्रेष्ठ है, जिनके हृदय में परमेश्वर का समावेश है।

ਤਿਨ ਕਾ ਕਿਆ ਸਾਲਾਹਣਾ ਅਵਰ ਸੁਆਲਿਉ ਕਾਇ ॥
तिन का किआ सालाहणा अवर सुआलिउ काइ ॥

उनकी प्रशंसा क्या की जाए, अन्य कौन प्रशंसनीय हो सकते हैं।

ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਬਾਹਰੇ ਰਾਚਹਿ ਦਾਨਿ ਨ ਨਾਇ ॥੪॥੪॥
नानक नदरी बाहरे राचहि दानि न नाइ ॥४॥४॥

सतगुरु जी कहते हैं कि जो लोग निरंकार की कृपा-दृष्टि से परे हैं, वे परमात्मा द्वारा प्रदत्त विभूतियों में ही लगे रहते हैं, नाम में नहीं ॥ ४॥ ४॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥

सिरीरागु महला १ ॥

ਅਮਲੁ ਗਲੋਲਾ ਕੂੜ ਕਾ ਦਿਤਾ ਦੇਵਣਹਾਰਿ ॥
अमलु गलोला कूड़ का दिता देवणहारि ॥

प्रदाता निरंकार ने जीव को जो नश्वर शरीर रूपी नशे की गोली प्रदान की है। अर्थात् मानव को जो परमात्मा ने देह प्रदान की है, उसके अभिमान रूपी नशे में जीव अचेत हो रहा है।

ਮਤੀ ਮਰਣੁ ਵਿਸਾਰਿਆ ਖੁਸੀ ਕੀਤੀ ਦਿਨ ਚਾਰਿ ॥
मती मरणु विसारिआ खुसी कीती दिन चारि ॥

उसके अभिमान में मस्त बुद्धि ने मृत्यु को भुला रखा है और अल्पकालिक ख़ुशी में परमेश्वर से विमुख हो रहा है

ਸਚੁ ਮਿਲਿਆ ਤਿਨ ਸੋਫੀਆ ਰਾਖਣ ਕਉ ਦਰਵਾਰੁ ॥੧॥
सचु मिलिआ तिन सोफीआ राखण कउ दरवारु ॥१॥

जिन को यह नशा नहीं हुआ उन सूफियों को सत्य स्वरूप अकाल पुरख प्राप्त हुआ है ताकि उन्हें बैकुण्ठ में स्थान मिले ॥ १॥

ਨਾਨਕ ਸਾਚੇ ਕਉ ਸਚੁ ਜਾਣੁ ॥
नानक साचे कउ सचु जाणु ॥

इसलिए नानक जी का कथन है कि हे मानव ! सत्यस्वरूप अकाल पुरख को ही निश्चित व सत्य जान।

ਜਿਤੁ ਸੇਵਿਐ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਤੇਰੀ ਦਰਗਹ ਚਲੈ ਮਾਣੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जितु सेविऐ सुखु पाईऐ तेरी दरगह चलै माणु ॥१॥ रहाउ ॥

जिसका सिमरन करने से आत्मिक सुखों की प्राप्ति होती है और निरंकार के दरबार में सम्मान प्राप्त होता है ॥ १॥ रहाउ॥

ਸਚੁ ਸਰਾ ਗੁੜ ਬਾਹਰਾ ਜਿਸੁ ਵਿਚਿ ਸਚਾ ਨਾਉ ॥
सचु सरा गुड़ बाहरा जिसु विचि सचा नाउ ॥

वास्तव में मदिरा गुड़ के बिना नहीं बनती, इसलिए निरंकार के नाम की खुमारी हेतु सत्यता रूपी मदिरा में ज्ञान रूपी गुड़ का सम्मिलित होना आवश्यक है, जिसमें प्रभु-नाम मिला हुआ हो।


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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