सतगुरु जी कथन करते हैं कि लाखों मन कागज़ पढ़-पढ़ कर, अर्थात् अनेकानेक शास्त्रों व धर्म ग्रंथों का अध्ययन करके, ईश्वर से प्रेम किया जाए।
उसकी स्तुति लिखने हेतु स्याही का भी अभाव न हो और कलम पवन की भाँति चलती रहे।
हे मानव ! शब्दों का बोलना सीमित है। खाना-पीना भी सीमित है।
मार्ग पर चलने की सीमा बंधी हुई है, देखने व श्रवण करने की सीमा निश्चित है।
यहाँ तक की स्रष्टा (प्रभु) ने जो तुझे श्वास प्रदान किए हैं उनके लेने की भी सीमा है, (इसकी पुष्टि हेतु) किसी विद्वान से पूछने की क्या आवश्यकता है ॥ १॥
इसलिए हे जीव ! यह सांसारिक माया सब-कुछ कपट है।
जिस अज्ञानी ने परमात्मा का नाम अपने हृदय से विस्मृत कर दिया, उसके हाथ न तो यह माया आई और न उसे परमात्मा की प्राप्ति हुई है ॥ १॥ रहाउ॥
जन्म से लेकर मृत्यु काल तक मानव इस संसार में अपने सम्बन्धियों के संग सांसारिक पदार्थों का भोग करता रहता है।
किन्तु जिस धर्मराज की सभा में बिठा कर जीव को उसके कर्मों का लेखा बताया जाता है, वहाँ तक जाने के लिए अथवा वहाँ उसकी सहायता करने हेतु कोई साथ नहीं चलता।
मृत्यु के पश्चात् जो रोते हैं वे सभी व्यर्थ का भार बांधते हैं अर्थात् वे रोने का व्यर्थ-कर्म करते हैं। ॥ २ ॥
परमात्मा को प्रत्येक अधिक ही अधिक ही कहता है, अल्प कोई नहीं कहता।
किन्तु उसका मूल्यांकन कोई नहीं कर सकता, कहने मात्र से वह बड़ा अथवा महान् नहीं होता है।
सत्य स्वरूप निरंकार तू सिर्फ़ एक ही है, तथा अन्य प्राणियों के हृदय में ज्ञान का प्रकाश करने वाला है ॥३॥
निम्न में जो निम्न जाति के लोग हैं और फिर उनमें भी जो अति निम्न प्रभु भक्त हैं।
सतगुरु जी कहते हैं कि हे निरंकार ! उनके साथ मेरा मिलाप करो, माया व ज्ञानाभिमान के कारण जो बड़े हैं उनसे मेरी क्या समानता है।
जिस स्थान पर उन निम्न व्यक्तियों की सम्भाल की जाती है, वहाँ पर ही, हे कृपासागर ! मेरे प्रति तेरी कृपा होगी ॥ ४॥ ३॥
सिरीरागु महला १ ॥
लोभ करने वाला कुत्ते के समान, मिथ्या बोलने वाला भंगी, छल-कपट से दूसरे को खाने वाला शव-भक्षक होता है।
दूसरे की निंदा करने से मुँह में सर्वथा पराई मैल पड़ती है, क्रोधाग्नि से मनुष्य चाण्डाल का रूप धारण कर लेता है।
आत्म-प्रशंसा खट्टे-मीठे रसों का पदार्थ है, हे करतार ! यही तुम से विमुख करने वाले अस्मदादिक जीवों के कर्म हैं। ॥ १॥
हे मानव ! ऐसे वचन करो जिनसे प्रतिष्ठित हुआ जाए।
क्योंकि जो जीव इस लोक में श्रेष्ठ हैं वही परमात्मा के द्वार पर भी उत्तम कहे जाते हैं और मंद कर्मी जीवों को नरकों के कष्ट भोग कर रोना पड़ता है। ॥१॥ रहाउ ॥
(मानव मन में) सोने के आभूषणों का प्रेम है, चांदी के प्रति स्नेह है, सुंदर स्त्री के भोग का रस है, सुगन्धि का प्यार है,
घुड़सवारी की प्रीत है, आकर्षक सेज पर सोने व भव्य महलों में रहने की चाह है, मीठे पदार्थों के खाने तथा मांस-मदिरा सेवन करने की लगन है।
ये जो कथन किए हैं, ये सभी रसानंद शरीर में विद्यमान हो रहे हैं तो परमात्मा का नाम-रस अंत: करण के किस स्थान पर निवास करे ॥२॥
जो वचन बोलने से प्रतिष्ठा प्राप्त होती है वही कथन परमात्मा के दरबार में स्वीकृत होता है।
हे अज्ञानी मन ! सुन, नीरस वचन बोलने वाला व्यक्ति दु:खी होता है।
जो परमेश्वर को भले लगते हैं वही वचन श्रेष्ठ हैं, और क्या कथन व गुणगान किया जाए ॥ ३॥
उन व्यक्तियों की बुद्धि, प्रतिष्ठा व दैवी सम्पदा रूपी धन श्रेष्ठ है, जिनके हृदय में परमेश्वर का समावेश है।
उनकी प्रशंसा क्या की जाए, अन्य कौन प्रशंसनीय हो सकते हैं।
सतगुरु जी कहते हैं कि जो लोग निरंकार की कृपा-दृष्टि से परे हैं, वे परमात्मा द्वारा प्रदत्त विभूतियों में ही लगे रहते हैं, नाम में नहीं ॥ ४॥ ४॥
सिरीरागु महला १ ॥
प्रदाता निरंकार ने जीव को जो नश्वर शरीर रूपी नशे की गोली प्रदान की है। अर्थात् मानव को जो परमात्मा ने देह प्रदान की है, उसके अभिमान रूपी नशे में जीव अचेत हो रहा है।
उसके अभिमान में मस्त बुद्धि ने मृत्यु को भुला रखा है और अल्पकालिक ख़ुशी में परमेश्वर से विमुख हो रहा है
जिन को यह नशा नहीं हुआ उन सूफियों को सत्य स्वरूप अकाल पुरख प्राप्त हुआ है ताकि उन्हें बैकुण्ठ में स्थान मिले ॥ १॥
इसलिए नानक जी का कथन है कि हे मानव ! सत्यस्वरूप अकाल पुरख को ही निश्चित व सत्य जान।
जिसका सिमरन करने से आत्मिक सुखों की प्राप्ति होती है और निरंकार के दरबार में सम्मान प्राप्त होता है ॥ १॥ रहाउ॥
वास्तव में मदिरा गुड़ के बिना नहीं बनती, इसलिए निरंकार के नाम की खुमारी हेतु सत्यता रूपी मदिरा में ज्ञान रूपी गुड़ का सम्मिलित होना आवश्यक है, जिसमें प्रभु-नाम मिला हुआ हो।