तुम गुरुमुख होकर परमेश्वर हरि-प्रभु को स्मरण करो॥ १॥ रहाउ॥
गुरुमुखों के चेहरे उज्ज्वल और उज्ज्वल हैं; वे गुरु के शब्द का प्रतिबिंबन करते हैं।
वह अपने हृदय में मुरारि के नाम को जपने से मृत्युलोक व परलोक में सुखों को प्राप्त करता है।
अपने अंतरात्मा के घर में, वे गुरु के शब्द पर विचार करते हुए, भगवान की उपस्थिति का भवन प्राप्त करते हैं। ||२||
जो जीव सतगुरु से परामुख होते हैं उनके मुख कलंकित होते हैं।
वे प्रतिदिन कष्ट भोगते हैं और नित्य यमों के जाल में फँसते हैं।
उनको स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता तथा कई तरह की चिंताग्नि उन्हें पूर्णतया जला देती है॥ ३॥
समस्त प्राणियों को देने वाला ईश्वर एक ही है और वह स्वयं ही अनुग्रह करता है।
उसके अनुग्रह के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिसे चाहे वह देता है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु की शरण में जाकर जो प्रभु को पाने का उद्यम करता है, वही उसके आनंद को जान सकता है॥ ४॥ ६॥ ४२॥
सिरीरागु महला ३ ॥
सत्य परमात्मा की सेवा-उपासना की जाए तो वह सत्य स्वरूप रूपी सम्मान प्रदान करता है।
गुरु की कृपा से वे मन में निवास करते हैं और अहंकार दूर हो जाता है।
यह मन भटकने से तभी बच सकता है, जब वह परमेश्वर स्वयं कृपा-दृष्टि करता है॥ १॥
हे भाई ! गुरु के उपदेश द्वारा हरि-प्रभु के नाम का सिमरन करो।
यदि नाम-भण्डार सदा के लिए मन में स्थिर हो जाए तो जीव उस प्रभु के स्वरूप में स्थान प्राप्त कर लेता है ॥१॥ रहाउ ॥
स्वेच्छाचारी जीव का हृदय व शरीर अविद्या के कारण अन्धा हो रहा है, इसलिए उसे ठहरने के लिए कोई आश्रय नहीं होता।
वह अनेकानेक योनियों में भटकता फिरता है, जैसे सूने घर में कौवा रहता हो।
गुरु की शिक्षा द्वारा हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है और वाणी द्वारा परमेश्वर का नाम प्राप्त होता है।॥ २॥
संसार में त्रिगुणी (सत्त्व, रज, तम) विषय-विकारों का अंधेरा छाया हुआ है और माया के मोह की धूलि चढ़ी हुई है।
लोभी जीव वेद आदि धर्म ग्रंथों को पढ़-पढ़ कर परमेश्वर को पुकारते तो हैं, लेकिन द्वैत-भाव के कारण वह एकेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को स्मरण करते हैं।
विषय-विकारों की अग्नि में जल कर वे मर गए तथा वह न इस संसार के सुख भोग सके और न ही परलोक में स्थान पा सके॥ ३॥
उन्होंने माया-मोह में लिप्त होकर उस प्रतिपालक परमात्मा को विस्मृत कर दिया है।
सम्पूर्ण सृष्टि गुरु के बिना चेतना रहित है और वह यमों के जाल में फँसी हुई है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु के उपदेशानुसार सत्य-नाम का सिमरन करके ही जीव यमों के बंधन से बच सकते हैं। ४॥ १० ॥ ४३ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
भाव तुरीय अवस्था ध्यान की चौथी अवस्था है, जिसमें मन और मस्तिष्क में कुछ भी नहीं चलता है - यह भी नहीं कि कुछ नहीं है। इससे पहले की तीन अवस्थाओं में इंद्रियों द्वारा महसूस की गई बात (कोई रूप, कोई गन्ध, कोई ख़याल), कल्पना की गई बात और शून्य महसूस किया जाता है।
उसके हृदय में ही उस हरि-प्रभु का नाम बसा है।
जिनके भाग्य रूपी खज़ाने में पुण्य जमा है, प्रभु उनको सत्संगति में मिलाता है॥ १॥
हे माई ! गुरु की शिक्षा द्वारा सत्य में निवास करो।
केवल सत्य की साधना करो, जिससे उस सत्य स्वरूप से मिलन संभव हो सके ॥ १॥ रहाउ ॥
जिन्होंने पारब्रह्म परमेश्वर के नाम को पहचाना है, उन पर मैं बलिहारी जाता हूँ।
अहंत्व का त्याग करके उनके चरणों में पड़ जाऊँ और उनकी इच्छानुसार चलू।
क्योंकि उनकी संगति में रह कर नाम-सिमरन का लाभ मिलता है, तथा सहज ही नाम की प्राप्ति हो जाती है॥ २॥
किन्तु गुरु के बिना नाम की प्राप्ति नहीं हो सकती और नाम के बिना सत्य स्वरूप को नहीं पाया जा सकता।
फिर कोई ऐसा सत्य गुरु ढूंढ लो, जिसके द्वारा वह सत्य परमात्मा प्राप्त किया जाए।
जो जीव गुरु के मार्गदर्शन में सत्य परमात्मा को पा लेता है उसके काम, क्रोध, लोभ रूपी दैत्यों का संहार हो
जैसी सतिगुरु में श्रद्धा होगी, वैसा सुख-फल जीव को प्राप्त होगा।
इस तथ्य में बिल्कुल भी संदेह नहीं है, निःसंकोच कोई भी जीव सतगुरु से प्रेम करके देख ले।
नानक देव जी कथन करते हैं कि अकाल पुरुष एवं गुरु चाहे दो रूप दिखाई देते हैं, परंतु इन दोनों में ज्योति एक ही है, गुरु के उपदेश द्वारा ही अकाल-पुरुष से मिलन संभव है॥ ४॥ ११॥ ४४॥