हे जगत के पालनहार ! तुम सर्वव्यापक हो, संसार के कण-कण में तुम विद्यमान हो। जिस तरह तुझे लुभाता है उसी तरह मेरी रक्षा करो।
गुरु-उपदेशानुसार सत्यनाम मनुष्य के हृदय में प्रस्थापित होता है। ईश्वर का नाम ही सच्चा साथी और सच्चा सम्मान है।
अहंकार के रोग को दूर करके वह परमात्मा के सत्यनाम की आराधना करता है ॥८ ॥
हे प्रभु ! तुम आकाश, पाताल तीनों लोकों में समाए हुए हो।
तुम ही जीवों को भक्ति में लगाते हो और स्वयं ही तुम अपने मिलाप में मिलाते हो।
हे नानक ! मैं प्रभु के नाम को कदाचित् विस्मृत न करूँ। हे जगत् के पालनहार ! जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे ही तेरी इच्छा काम करती है, अपनी इच्छानुसार ही मेरी पालना करो ॥६॥१३॥
श्रीरागु महला १ ॥
राम नाम से मेरा मन बिंध गया है। इसलिए किसी अन्य के विचार की कोई आवश्यकता नहीं रह गई ?
नाम में सुरति लगाने से मन में आनंद उत्पन्न होता है। अब मैं प्रभु के प्रेम में रंग गया हूँ, यही सुख का आधार है।
हे ईश्वर ! जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे ही मुझे रखो, तेरा हरि-नाम मेरा आधार है।l१॥
हे मेरे मन ! पति-परमेश्वर की इच्छा ही बिल्कुल सत्य है,
तुम उसी के प्रेम में लीन रहो, जिसने तेरे तन एवं मन की रचना करके संवारे हैं ॥१॥ रहाउ
यदि मैं अपने शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करके उन्हें यज्ञ अग्नि में अर्पित कर दूँ,
यदि मैं अपने तन तथा मन को यज्ञ की समिधा बना लूँ और दिन-रात इनको अग्नि में प्रज्वलित करूँ
और यदि में लाखों-करोड़ों धार्मिक यज्ञ करूँ तो भी ये सारे कर्म हरि-नाम के तुल्य नहीं पहुँचते ॥२॥
यदि मेरे सिर पर आरा रख कर मेरी देहि को दो आधे-आधे टुकड़ों में कटवा दिया जाए
अथवा हिमालय की बर्फ में जाकर गाल दिया जाए तो भी मन के रोग निवृत नहीं होते।
यह सब कुछ मैंने जांच-परखकर पुष्टि करके देख लिया है कि इनमें से कोई भी कर्मकांड ईश्वर का श्रद्धापूर्वक नाम लेने के तुल्य नहीं है॥३॥
यदि मैं सोने के किले दान करूँ और बहुत सारे बढ़िया नस्ल के हाथी-घोड़े दान करूँ
और यदि भूमिदान तथा बहुसंख्यक गाएँ भी दान करूं, तो भी मेरे मन के भीतर अहंकार एवं घमंड विद्यमान रहेगा।
राम नाम ने मेरा मन बिंध लिया है और गुरु की कृपा-दृष्टि ने मुझे सच्चा दान प्रदान किया है, इस राम नाम में ही मेरा मन लीन हो गया है ॥४॥
मनुष्य अपने मन के हठ से कितने ही कर्म अपनी बुद्धि अनुसार करता है और वेदों में बताए हुए अन्य कितने ही कर्मकांड करता है
उसकी आत्मा को कितने ही बंधन पड़े हुए हैं। मोक्ष द्वार गुरु द्वारा ही मिलता है।
सभी धर्म-कर्म प्रभु के नाम से न्यून हैं। सत्य आचरण सर्वश्रेष्ठ है॥ ५॥
सभी जीवों को ऊँचा समझना चाहिए और किसी भी जीव को अपने से नीचा मत समझो।
क्योंकि यह सभी शरीर रूपी बर्तन एक प्रभु की रचना हैं। तीनों लोकों के जीवों में एक ही प्रभु की ज्योति प्रज्वलित हो रही है।
प्रभु का सत्य नाम उसकी कृपा से ही मिलता है। आदि से लिखी हुई प्रभु की कृपा को कोई मिटा नहीं सकता ॥६॥
जब कोई साधु दूसरे साधु से मिलता है तो गुरु की प्रीति द्वारा वह संतोष प्राप्त कर लेता है।
यदि मनुष्य सतगुरु में लीन हो जाए तो वह अकथनीय स्वामी की वार्ता को सोचने समझने लग जाता है।
सुधा रस अमृत पान से वह तृप्त हो जाता है और मान-प्रतिष्ठा का वेष धारण करके प्रभु के दरबार को जाता है ॥७॥
रात-दिन उन सबके हृदय में अनहद शब्द रूपी वीणा बज रही है, जो ईश्वर के नाम से प्रेम करते हैं।
कोई दुर्लभ प्राणी ही है जो गुरु की अनुकंपा से अपनी आत्मा को सन्मार्ग में लगाकर ज्ञान प्राप्त करता है।
हे नानक ! मुझे भगवान् का नाम कभी भी विस्मृत न हो ! मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में से नाम की साधना करके ही मुक्त हो सकता है ॥८॥१४॥
श्रीरागु महला १ ॥
मनुष्य को अपने चित्रित किए महल दिखाई देते हैं जिनके सफेद एवं सुन्दर द्वार हैं।
उसने उन्हें मन में बड़ी चाह से माया के प्रेम में बनाया है
परन्तु उसका हृदय भगवान् के प्रेम के बिना खाली है। उसके ये सुन्दर महल ध्वस्त हो जाएँगे और उसका शरीर भी राख का ढेर हो जाएगा ॥१॥
हेभाई ! मृत्यु के समय तन और धन तेरे साथ नहीं जाएँगे।
राम का नाम ही निर्मल धन है। भगवान् का रूप गुरु ही नाम का दान जीव को देते हैं॥ १॥ रहाउ ॥
राम नाम रूपी निर्मल धन मनुष्य को तभी मिलता है, यदि देने वाला गुरु स्वयं ही प्रदान करें।
सृष्टिकर्ता रुप गुरु जिसका मित्र बन जाए, उसकी आगे परलोक में पूछताछ नहीं होती।
यदि ईश्वर मनुष्य को स्वयं मुक्त करे, तो वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है, क्योंकि वह स्वयं ही क्षमाशील है॥ २॥