केवल वहीं मनुष्य सतगुरु की शरणागति प्राप्त करते हैं जिन पर प्रभु की कृपा होती है।
लोक तथा परलोक में उनके चेहरे उज्ज्वल होते हैं, वह परमात्मा के दरबार में प्रतिष्ठा की पोशाक धारण करके जाते हैं ॥ १४ ॥
श्लोक महला २ ॥
जो सिर ईश्वर के समक्ष नहीं झुकता, उसे उतार देना चाहिए भाव जो भगवान् को याद नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ है।
हे नानक ! वह मानव शरीर जिसमें ईश्वर से विरह की पीड़ा नहीं वह व्यर्थ है ॥१॥
महला ५॥
हे नानक ! जो जीव-स्त्री जगत् के मूल प्रभु को भूली हुई है, वह पुनः पुनः जन्मती और मरती है।
और भौतिकतावाद को कस्तूरी समझकर भ्रमवश इस माया रूपी जाल में फंस जाता है, जो सांसारिक धन के दुर्गंधयुक्त गड्ढे के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। ॥ २॥
पउड़ी ॥
हे मेरे मन ! तू हरि-परमेश्वर के ऐसे नाम का ध्यान कर, जो समस्त जीवों को अपनी आज्ञानुसार चलाता है।
हे मेरे मन ! तू हरि-परमेश्वर के ऐसे नाम का जाप कर, जो अंतिम समय में तुझे मोक्ष प्रदान करेगा।
हे मेरे मन ! तू हरि-परमेश्वर के ऐसे नाम का सिमरन कर, जो तेरे चित्त की समस्त तृष्णाएँ एवं भूख को मिटा देता है।
सभी निंदक और दुष्ट लोग सदा भगवान् के नाम का प्रेमपूर्वक स्मरण करने वाले गुरु के भाग्यशाली अनुयायियों से क्षमा और दया मांगते हैं।
हे नानक, पूजा और नाम, सभी का सबसे बड़ा नाम है, जो पहले सभी आते हैं और धनुष पसंद है। । 15 । । ।
श्लोक महला ३॥
एक स्वेच्छाचारी व्यक्ति जो भगवान् को प्रसन्न करने के लिए धार्मिक अनुष्ठान करता है, वह कुरूप एवं आचरणहीन जीव-स्त्री की तरह है जो अपने पति को खुश करने के लिए सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित होती है;
वह अपने पति-प्रभु की इच्छानुसार नहीं चलती, वह गंवार अपने पति-प्रभु पर आदेश चलाती है और व्यथित रहती है। एक स्वेच्छाचारी व्यक्ति भी ठीक इसी प्रकार व्यथित रहता है।
जो जीव-स्त्री गुरु की आज्ञानुसार चलती है, वह समस्त दुःखों से बच जाती है।
परमात्मा ने पूर्व-कर्म फल रूप में जो लिख दिया है, वह मिटाया अथवा बदला नहीं जा सकता।
लेकिन यदि कोई भाग्यशाली व्यक्ति अपने तन-मन को गुरु-भगवान के सामने समर्पित कर दे और गुरु के दिव्य शब्द के प्रति प्रेम विकसित कर ले तो पूर्वनिर्धारित नियति बदल सकती है।
अपने मन में विचार करके देख लो कि नाम-स्मरण किए बिना किसी को भी परमात्मा प्राप्त नहीं हुआ।
हे नानक ! केवल वहीं जीव-स्त्री सुन्दर एवं गुणवान है, जिसे सृष्टिकर्ता-ईश्वर ने अपना प्रेम प्रदान किया है।॥१॥
महला ३॥
माया का मोह अज्ञानता का अँधकार है यह मोह रूपी अँधेरा एक समुद्र की तरह है, जिसका कोई आर-पार नज़र नहीं आता।
अज्ञानी मनमुख व्यक्ति ईश्वर के नाम को विस्मृत करके डूब जाते हैं और भयानक दुःख सहन करते हैं जैसे कि वे आध्यात्मिक अंधकार के समुद्र में डूब गए हों।
वह माया के मोह में मुग्ध हुए उनके दिन का प्रारम्भ प्रातः काल उठकर बहुत सारे कर्मकाण्ड करते हुए होता है।
जो व्यक्ति अपने सतगुरु की शिक्षाओं का पालन करते हैं और प्रभुका नाम-सिमरन करते हैं, वें भवसागर से पार हो जाते हैं।
हे नानक ! गुरमुख जन सत्यनाम को अपने हृदय में स्थापित करते हैं और सत्य प्रभु में लीन हो जाते हैं ॥२ ॥
पउड़ी ॥
ईश्वर सागर, मरुस्थल, धरती एवं गगन सभी अन्दर विद्यमान है, उसके जैसा अन्य दूसरा कोई नहीं।
ईश्वर अपने दरबार में विराजमान होकर जीवों के कर्मों का स्वयं न्याय करता है और समस्त झूठों को दंडित करता है एवं स्वयं से दूर कर देता है।
सत्यवादियों को परमेश्वर शोभा प्रदान करता है और धर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को फल देकर न्याय करता है।
इसलिए तुम सभी हरि की महिमा- स्तुति करो, जो निर्धनों एवं अनाथों की रक्षा करता है।
वह भद्रपुरुषों को मान-प्रतिष्ठा प्रदान करता है और दोषियों को वह दण्ड देता है ॥१६ ॥
श्लोक महला ३॥
मनमुख जीव विषय-विकारों से मलिन, दुष्ट चरित्र वाली कुरूप नारी के समान होता है।
वह अपने स्वामी एवं घर को त्याग देती हैं और पराए पुरुष के साथ प्रीत करती है। स्वेच्छाचारी व्यक्ति हृदय में स्थित भगवान् को भी त्याग देता है और माया के प्रेम में पड़ जाता है।
स्वेच्छाचारी मनुष्य की तृष्णा कभी शांत नहीं होती, वह तृष्णा अग्नि में जलता रहता है और तृष्णा अग्नि में जलता हुआ विलाप करता रहता है।
हे नानक ! हरिनाम के बिना वह स्वेच्छाचारी मनुष्य उस कुरुप और अधम स्त्री के समान है जिसे उसके स्वामी ने त्याग दिया है॥ १॥