सिरीरागु महला ३ घरु १ ॥
जिस परमेश्वर की यह सृष्टि रूपी सरकार है, प्रत्येक जीव उसका ही दास है।
गुरु के उपदेशानुसार जिसने भी सद्कर्म किए हैं, उसके हृदय में सत्य स्वरूप परमात्मा प्रकट हुआ है।
जिसके हृदय में सत्य विद्यमान है, उस गुरमुख व्यक्ति की सच्ची शोभा होती है।
जब जीव सत्य स्वरूप परमेश्वर के साथ मिल जाता है, तो फिर वह उससे कभी नहीं बिछुड़ता क्योंकि उसका आत्म-स्वरूप में निवास हो जाता है॥ १॥
हे मेरे राम ! परमेश्वर के बिना मेरा अन्य कोई नहीं है।
परन्तु सत्य-स्वरूप एवं पवित्र परमात्मा के साथ मिलन सतगुरु के उपदेश द्वारा ही होता है॥ १॥ रहाउ॥
जो जीव गुरु के उपदेश को ग्रहण करते हैं, वे परमात्मा से मिल पाते हैं, लेकिन गुरु के उपदेश को भी वही प्राप्त करता है, जिस पर स्वयं परमात्मा कृपा करता है।
द्वैत-भाव रखने वाले को परमात्मा नहीं मिलता तथा वह जीव इस संसार में पुनः पुनः आता-जाता रहता है।
समस्त प्राणियों में वह एक ही परमात्मा व्याप्त है और सभी जगह वही समाया हुआ है।
जिस पर वह स्वयं कृपालु होता है, वही गुरुमुख जीव नाम-सिमरन में लीन होता हैII २॥
विद्वान तथा ज्योतिषी लोग ग्रंथों को पढ़-पढ़ कर वाद-विवाद निमित्त विचार करते हैं।
ऐसे लोगों की बुद्धि तथा विवेक भटक जाते हैं और वे यह नहीं समझते कि उनके अंतर्मन में लोभ का विकार है।
वे चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं और भटक-भटक कर अपमानित होते हैं।
पूर्व कर्मानुसार जो लेख भाग्य में लिखे हैं, उन्हें भोगना ही होगा, उन्हें कोई नहीं मिटा सकता॥ ३॥
सतगुरु की सेवा करना अति विषम है, इस कार्य के लिए सिर और अहंत्व का त्याग करना पड़ता है।
गुरु की सेवा करते हुए जो गुरु-उपदेश प्राप्त होता है उसी से प्रभु-प्राप्ति संभव है तब जाकर कहीं सेवा सफल होती है।
गुरु रूपी पारस के संकर्षण से जीव पारस हो जाता है तथा आत्मिक ज्योति परम ज्योति में अभेद हो जाती है।
पूर्व-जन्म के कर्मानुसार प्रारब्ध में जिनके लिखा है, उन्हें सतिगुरु आकर मिला है॥ ४॥
है जीव ! तुम ऐसी बात मत कहो कि मैं भूखा हूँ, मैं भूखा हूँ और न ही चीख-चीख कर पुकार करो।
चौरासी लाख योनियों के रूप में जिसने सृष्टि की रचना की है, वही परमात्मा समस्त जीवों को आश्रय देता है।
भय-रहित परमात्मा सदैव दयालु रहा है, वह सभी की रक्षा करता है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि यह सब क्रीड़ा गुरुमुख जीव ही समझता है और वही मोक्ष-द्वार को प्राप्त करता है॥ ५ ॥ ३॥ ३६ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
जिन जीवों ने गुरु-उपदेश श्रवण करके उसका चिन्तन किया है, उनका निज-स्वरूप घर में वास हुआ है।
जिन्होंने गुरु-उपदेश ग्रहण करके सत्य परमात्मा की स्तुति की है, उन्होंने गुण-निधान हरि को प्राप्त किया है।
जो गुरुओं की वाणी में लीन हैं, वे पवित्रात्मा हैं और मैं उन पर बलिहारी जाता हूँ।
जिनके हृदय में हरि का निवास है, उनके हृदय में ज्ञान रूपी प्रकाश होता है ॥१॥
हे मेरे मन ! उस पवित्र प्रभु का नाम-सुमिरन कर।
जिनके मस्तिष्क पर आदि से ही प्रभु का नाम सिमरन लिखा हुआ है, वे गुरुमुख बनकर उसमें लीन हो जाते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
हे संत जनो ! अपनी दिव्य दृष्टि से देखो कि वह परमेश्वर परिपूर्ण होकर सभी के अंत:करण में व्याप्त है।
जिन्होंने गुरु-उपदेश के मार्ग पर चल कर उस परमेश्वर को पहचाना है, वे प्रायः उसे अपने समक्ष ही देखते हैं।
जो सद्गुणी जीव हैं, उनके हृदय में सदा हरि वास करता है, अवगुणी जीवों से वह दूर ही रहता है।
स्वेच्छाचारी (मनमुख) जीव गुण-रहित होते हैं और वे बिना नाम-सिमरन किए यूं ही दु:खी होकर मरते हैं॥ २॥
जिन्होंने गुरु-उपदेश को सुन कर उसको मान लिया है, उन्होंने ही उस हरि-परमात्मा को हृदय में स्मरण किया है।
प्रतिदिन भक्ति में अनुरक्त होने के कारण उनका तन-मन पवित्र हो जाता है।
जिस प्रकार कुसुम पुष्प का रंग अस्थिर होता है उसी प्रकार भौतिक पदार्थ भी अस्थिर हैं, अर्थात् भौतिक सुख क्षणिक होते हैं उनका नाश हो जाने से जीव दु:ख में व्याकुल होकर रोता है।
जिसके हृदय में नाम का प्रकाश है, वह सदा-सदा के लिए प्रभु में स्थिर होता है॥ ३॥