जितने पुरुष नाम के श्रोता व वाचक हैं, उन पर मैं न्योछावर जाता हूँ।
इस नाम सिमरन रूपी मदिरा से मन मस्त हुआ तभी जाना जा सकता है,जब जिज्ञासु निरंकार के स्वरूप को प्राप्त कर ले ॥२॥
जो नाम-जाप व सत्कर्म रुपी जल में स्नान करते हैं और सत्य वचन रूपी सुगंधि को तन पर लगाते हैं।
उनका ही मुँह उज्ज्वल होता है और अन्त लाखों प्राप्तियों में एक नाम की प्राप्ति ही श्रेष्ठ है।
दु:ख भी उसके सम्मुख ही कथन किए जाएँ जिसके पास देने के लिए सुख हो। ॥ ३ ॥
फिर उस वाहेगुरु को हृदय से विस्मृत क्यों कर किया जाए, जिसने संसार के समस्त प्राणियों को प्राण दिए हुए हैं।
उस निरंकार के बिना खाना-पीना व पहनना सब अपवित्र है।
अन्य सभी बातें व्यर्थ अथवा मिथ्या हैं, केवल वही सत्य व स्वीकृत हैं जो तुझे भला लगता है॥ ४॥ ५॥
सिरीरागु महलु १ ॥
मोह को जलाकर, तदनन्तर उसे रगड़ स्याही बना लें और श्रेष्ठ बुद्धि को काग़ज़ बना लें।
प्रेम-रूपी लेखनी से एकाग्र मन रूपी लेखक द्वारा गुरु से सत्यासत्य का विचार उस बुद्धि रूपी काग़ज़ पर लिखें।
वाहेगुरु का नाम लिखें, उसकी स्तुति को लिखें और फिर उसकी अनंतता को लिखें ॥ १॥
हे बाबा जी ! ऐसा लेखा लिखा जाना चाहिए।
ताकि जहां (परलोक में) जीवों से कर्मों का हिसाब लिया जाता है वहाँ सत्य नाम का चिन्ह साथ हो II १॥ रहाउ॥
जिस परलोक में भक्त जनों को सम्मान मिलता है, सदैव प्रसन्नता तथा सदैव आनन्द की प्राप्ति होती है।
जिनके ह्रदय में सत्य नाम बसा हुआ है, उनके ललाट पर तिलक सुशोभित होते हैं।
ऐसा नाम जब निरंकार की कृपा हो तभी प्राप्त होता है, अन्यथा जो और वार्ता करनी है वह व्यर्थ है ॥२॥
कोई यहाँ जन्मता है और कोई मृत्यु को प्राप्त होता है, किन्हीं यहाँ पर मुखिया बन बैठते हैं।
कोई भिखारी पैदा होता है, कोई यहाँ पर बड़े दरबार लगा कर रहते हैं।
किन्तु परलोक में जाकर ही प्रतीत होता है कि निरंकार के नाम बिना यह सब-कुछ व्यर्थ है ॥ ३॥
हे पांधा जी ! आप के हृदय में परलोक का भय है अथवा नहीं, किन्तु मुझे आगे परलोक का भय बहुत है। इसलिए यह शरीर व्यवहारिक कार्यों में खप-खप कर टूट रहा है।
जिनके नाम बादशाह व सरदार होते हैं, वे भी मिट्टी में मिट्टी होते यहाँ देखे गए हैं।
सतगुरु जी कथन करते हैं कि जब जीव इस नश्वर संसार को त्याग कर चला जाता है तो जितने भी यहाँ पर मिथ्या प्रेम-सम्वन्ध स्थापित किए होते हैं, वे टूट जाते हैं। ॥ ४॥ ६॥
सिरीरागु महला १ ॥
हे पिता जी ! परमेश्वर के नाम का चिन्तन करने से मीठे रस तथा श्रवण करने से लवणीय रस प्राप्त होते हैं।
मुँह से उसकी स्तुति कथन करने से खट्टे व रूखे पदार्थों का स्वाद प्राप्त होता है और रागों में कीर्तन करने से सर्व प्रकार के मसालों का स्वाद मिलता है।
वास्तव में छत्तीस प्रकार का अमृत रूपी भोजन एक परमेश्वर का प्रेम है, परंतु जिन पर परमात्मा की कृपा होती है यह उसी को प्राप्त होते हैं। ॥ १॥
हे पिता जी ! जिह्वा के स्वाद हेतु अन्य पदार्थों का भक्षण करना (अंत में) प्रसन्नता को खिन्न करता है।
जिसके खाने से मन में कामादिक विकारों की प्रवृति हो, उससे परलोक में देह को पीड़ित किया जाता है ॥ १॥ रहाउ ॥
मन को वाहेगुरु-नाम में लीन करने को ही मैंने लाल रंग का पहरावा बनाया है, सत्य वचन कथन करने को श्वेत पहरावा बनाया है।
पाप रहित होकर प्रभु के चरणों का ध्यान करने को मैंने नील वस्त्र का पहरावा बनाया है।
संतोष को कमरबंद और ईश्वर-नाम को धन व यौवन माना है ॥ २॥
हे पिता जी ! इन सांसारिक सुखों के भोग में लगे रहने से हमारा मन वास्तविक ख़ुशी से वंचित रह जाता है। (जो आप भगवान् को याद करने से मिलती है)
जिसके पहनने से तन को पीड़ा हो तथा मन में विकारों की उत्पति हो, ऐसे वस्त्र पहनने व्यर्थ हैं ॥१॥ रहाउ॥
धर्म रूपी घोड़े को सत्य वचन की ज़ीन पहना कर, उसको करुणादि स्वर्ण के दुमची भूषण से सजा कर निरंकार की प्राप्ति के मार्ग की सूझ पर मैंने चलन किया है।
शुद्धचित रूपी तरकश में प्रेम रूपी तीर हैं, परमेश्वर की ओर उन्मुख बुद्धि मेरा कमान है, शांति मेरे लिए बर्छीं है, ज्ञान को मैंने म्यान माना है, इन शुभ गुणों की ओर ही मैंने दौड़ना किया है।
ईश्वर-कृपा से आपके घर में प्रतिष्ठा से प्रकट होना मेरे लिए धोंसा व भाला है, आपकी साक्षात् कृपा ही मानों मेरी उच्च जाति है II ३ II
हे पिता जी ! चित प्रसंन करते हेतु किसी अन्य की सवारी करने से मानव खिन्न होता है।
जिस पर चढ़ने से तन को पीड़ा हो और मन में विकारों की उत्पति हो, ऐसी सवारी करना व्यर्थ है॥ १॥ रहाउ॥
हे निरंकार ! तेरे नाम की प्रसंनता ही मेरे लिए भवनादि हैं और तुम्हारी कृपा-दृष्टि मेरा परिवार है।