जिनके पास सत्य नाम की पूँजी नहीं है, उनको आत्मिक सुख कैसे प्राप्त हो सकता है।
पाप रूपी अनिष्टकारी पदार्थ क्रय कर लेने से मन व तन भी दूषित हो जाता है।
ऐसे जीव की दशा जाल में फँसे मृग के समान होती है, यह नित्य प्रति गहन दु:खों को सहता हुआ रोता है॥ २॥
जिस प्रकार खोटा सिक्का खजाने में नहीं पड़ता, वैसे ही मिथ्या जीव को परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता।
मिथ्या जीव की न कोई जाति है न उसकी कोई प्रतिष्ठा होती है, पाप कर्म करने वाले जीव को आत्मिक जीवन में कभी सफलता नहीं मिलती।
मिथ्या पुरुषों के कर्म भी मिथ्या ही होते हैं, इसलिए वे आवागमन में ही अपनी प्रतिष्ठा खो देते हैं।॥ ३॥
गुरु नानक जी कथन करते हैं कि हमें गुरु उपदेश द्वारा प्रभु का यशोगान करने हेतु मन को समझाना चाहिए।
जो प्रभु-प्रेम में रंगे होते हैं उनको न पापों का भार तथा न ही कोई भ्रम होता है।
ऐसे जीवों को हरि के नाम-सिमरन का बहुत लाभ मिलता है तथा उनके मन में निर्भय परमात्मा का वास होता है ॥४॥२३॥
सिरीरागु महला १ घरु २ ॥
मानव जीवन में धन व यौवन तो फूल की भाँति चार दिनों के अतिथि हैं, जो चले जाएँगे।
यह पद्मनी के पत्तों के समान गिर कर गल-सड़ कर नष्ट हो जाने वाले हैं।॥ १॥
अतः हे जीव ! जब तक यौवन में नवोल्लास है, तब तक नाम-सिमरन का आनन्द प्राप्त कर ले।
तुम्हारे यौवनावस्था के दिन कम रह गए हैं, क्योंकि तुम्हारा शरीर रूपी चोला अब वृद्ध हो गया है॥ १॥ रहाउ॥
मेरे प्रिय मित्र भी (वृद्धावस्था उपरांत) श्मशान में जाकर गहरी निद्रा में सो गए हैं अर्थात्-मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं।
मैं भी दुविधा में यहाँ जाकर धीमे स्वर में रोऊं॥ २॥
हे सुन्दर जीव रूपी नारी! तुम अपने कानों से ध्यानपूर्वक यह बात क्यों नहीं सुन रही कि तुझे भी परलोक रूपी ससुराल में आना है।
मायके रूपी इस लोक में तुम्हारा सदा के दिए वास नहीं हो सकता॥ ३॥
नानक जी कहते हैं कि जो जीवात्मा निश्चित होकर इस लोक में अज्ञान निद्रा में लीन है, उसके गुणों को उसे दिन के प्रकाश में ही सेंध लग रही है।
यह जीव रूप स्त्री सद्गुणों की गठरी गंवा कर अवगुणों को एकत्रित करके चल पड़ी है॥ ४॥ २४॥
सिरीरागु महला १ घरु दूजा २ ॥
वह परिपूर्ण परमात्मा स्वयं ही रसिया है, स्वयं ही रस रूप है तथा स्वयं ही रमण करने वाला है।
स्वयं स्त्री रूप हो रहा है, स्वयं ही सेज और स्वयं ही पति रूप में व्याप्त है ॥१॥
समस्त रूपों में मेरा स्वामी परिपूर्ण होकर रमण कर रहा है॥ १॥ रहाउ॥
वह स्वयं ही मछुआ है, स्वयं मछली रूप में है, स्वयं जल है और स्वयं ही जाल रूप हो रहा है।
स्वयं ही जाल के आगे बंधा हुआ लोहे का मनका है तथा स्वयं ही उस जाल में लगा हुआ माँस का टुकड़ा (लालु) है; अर्थात्- सर्वस्व स्वयं वह परमेश्वर ही है॥ २॥
सतगुरु जी कथन करते हैं कि हे सखी ! मेरा प्रियतम प्रभु स्वयं ही अनेक तरह के आनन्द वाला हो रहा है।
वह नित्य ही सुहागिनों (प्रभु-प्रेमियों) को प्रीत करता है, हम द्वैत-भावी जीवों का हाल बहुत बुरा है॥ ३॥
गुरु नानक जी कथन करते हैं कि हे जीव ! तुम यही विनती करो कि हे परम पिता ! तुम ही स्वयं सरोवर हो, उस पर रहने वाले हंस भी तुम ही हो।
तुम स्वयं ही कमल हो, कुमुदिनी भी तुम हो, इन सब को देख कर तुम स्वयं ही प्रसन्न होने वाले हो! ।। ४॥ २५॥
सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥
इस तन रूपी भूमि में सद्कर्मों का बीजारोपण करके प्रभु-चिंतन रूपी जल से इसकी सिंचाई करो।
मन को कृषक बना कर हृदय में हरि-प्रभु को उगाओ, अर्थात् हृदय में प्रभु को धारण करो तथा इस तरह निर्वाण-पद रूपी फसल प्राप्त कर लोगे ॥ १॥
हे विमूढ़ जीव ! माया का अभिमान क्यों करता है?
माता, पिता, पुत्र व स्त्री आदि समस्त सगे-सम्बन्धी अंत समय में तेरे सहायक नहीं होंगे II रहाउ II
जिस प्रकार नदीन (खरपतवार) खेती में उग जाते हैं और कृषक उन्हें उखाड़ फेंकता है, इसी प्रकार हे मानव ! विषय-विकार रूपी नदीनों को हृदय में पनप रही खेती में से उखाड़ कर फेंक दो और इन विकारों को त्याग कर मन की एकाग्रता से प्रभु को स्मरण करो।
जप, तप, संयम जब शरीर रूपी भूमि के रक्षक हो जाते हैं तो हृदय में कमल खिलता है और उस में से ब्रह्मानंद रूपी शहद टपक पड़ता है॥ २ ॥
जब मनुष्य पाँच स्थूल तत्त्व, पाँच सूक्ष्म तत्त्व, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण तथा मन व बुद्धि के निवास स्थान वश में करे, तीनों अवस्थाओं-बाल्यावस्था, युवावस्था व जरावस्था में काल को स्मरण रखें।
दस दिशाओं तथा समस्त वनस्पतियों में अपरम्पार परमेश्वर को जाने तो हे नानक ! ऐसा एकमेय अद्वितीय प्रभु उसको भवसागर से पार उतार लेगा ॥ ३॥ २६॥