मैं अपनी अहंकार-भावना त्यागता चाहता हूँ और स्वयं को पूर्ण रूप से प्रभु को समर्पित करना चाहता हूँ और सतगुरु के उपदेशानुसार ऐसा आचरण करना चाहता हूँ जो उन्हें प्रसन्न करें।
मैं सदैव अपने गुरु पर बलिहार जाता हूँ, जो मेरी आत्मा को प्रभु के साथ मिलाते हैं।॥ ७ ॥
ब्राह्मण वही है जिसे ब्रह्म का ज्ञान है और प्रभु की प्रीति के साथ रंगा हुआ है।
पारब्रह्म-परमेश्वर समस्त प्राणियों के अति निकट उनके भीतर ही निवास करता है, किन्तु इस रहस्य को कोई दुर्लभ प्राणी गुरु के द्वारा ही जानता है।
हे नानक ! हरि-नाम द्वारा प्राणियों को बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और गुरु के शब्द द्वारा वह स्वामी को पहचान लेता है ॥८ ॥५॥२२॥
श्रीरागु महला ३ ॥
सारी दुनिया सहज सुख की कामना करती है परन्तु गुरु के बिना सहज की प्राप्ति नहीं होती।
पण्डित एवं ज्योतिष इस विषय पर विस्तारपूर्वक वेद एवं शास्त्रों का अध्ययन कर करके थक गए हैं और धार्मिक वेष धारण करने वाले साधु भ्रमों में खोए हुए हैं।
जिस पर भगवान् स्वयं कृपा करते हैं, वहीं गुरु से मिलकर सहज सुख को प्राप्त करता है।॥१॥
हे भाई ! गुरु के बिना सहज सुख प्राप्त नहीं हो सकता।
भगवान् का नाम जपने से ही सहज अवस्था उत्पन्न होती है और फिर भगवान् मिल जाते हैं ॥१॥ रहाउ ॥
भगवान् का गाया गया यश तभी स्वीकृत होता है, यदि वह सहज ही गाया जाए। सहजता के बिना भगवान् के गुणों का यशोगान करना व्यर्थ है।
सहजता से ही मनुष्य के हृदय में भक्ति उत्पन्न होती है। सहजता से ही भगवान् के प्रति प्रेम एवं उसके मिलन हेतु वैराग्य उत्पन्न होता है।
सहजता से ही सुख एवं शांति मिलती है। सहजता के बिना जीवन व्यर्थ है ॥२ ॥
भगवान् की महिमा सदैव सहज ही करनी चाहिए और सहज ही समाधि लगानी चाहिए।
सहज ही भगवान् की महिमा उच्चारण करनी चाहिए और सहज ही सुरति लगाकर भगवान् की भक्ति करनी चाहिए।
शब्द द्वारा भगवान् मन में आकर बसता है और रसना हरि-रस का पान करती है ॥३॥
सत्य की शरण में आने वाला प्राणी सहजावस्था में प्राणी मृत्यु-भय से मुक्त हो जाता है।
यदि प्राणी सच्ची जीवन मर्यादा की कमाई करे तो ईश्वर का नाम सहज ही उसके चित्त में टिक जाता है।
वे प्राणी बड़े भाग्यशाली हैं, जिन्होंने ईश्वर को पा लिया है और सहज ही उस हरि के नाम में लीन रहते हैं ॥४ ॥
माया में लिप्त प्राणी कभी सहज-ज्ञान को नहीं पा सकता, क्योंकि माया द्वैत-भाव को बढ़ाती है।
मनमुख प्राणी चाहे धार्मिक संस्कार करते हैं परन्तु अहंभावना उनको जला देती है।
वे कभी जन्म-मरण के चक्र से निवृत नहीं होते अपितु पुनः पुनः जन्म लेते और मृत्यु को प्राप्त होते हैं।॥५॥
जब तक माया के तीनों गुणों-रजस्, तमस्, सत में प्राणी का चित्त लिप्त रहता है, वह सहज का अधिकारी नहीं हो पाता; उक्त तीनों गुण भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं।
ऐसे प्राणी को पढ़ने-लिखने एवं बोलने का क्या लाभ है, यदि वह जगत् के मूल (प्रभु) को ही विस्मृत किए रहता है।
वास्तव में सहज सुख चौथे पद पर प्राप्त होता है, जिसकी प्राप्ति केवल गुरमुख के दामन में ही होती है।॥६॥
निर्गुण प्रभु का नाम एक अमूल्य भण्डार है। मनुष्य को इसका ज्ञान सहज अवस्था में ही होता है।
भगवान् की महिमा गुणवान जीव ही करते हैं। भगवान् की महिमा करने वाला सच्ची शोभा वाला बन जाता है।
प्रभु भूले हुए जीवों को भी सहज द्वारा अपने साथ मिला लेता है। यह मिलाप शब्द द्वारा होता है ॥७ ॥
आध्यात्मिक संतुलन या आंतरिक शांति के बिना, पूरा विश्व माया के प्रेम में अंधा हो गया है और आध्यात्मिक अज्ञान के घोर अंधकार में पड़ा हुआ है।
जो व्यक्ति भगवान् की स्तुति के माध्यम से आध्यात्मिक संतुलन की स्थिति प्राप्त करता है, वह अनंत भगवान् के गुणों से अवगत हो जाता है और उस पर केंद्रित रहता है।
दया प्रदान करते हुए, पूर्ण गुरु करतार स्वयं ही क्षमा करके अपने साथ मिला लेता है। ॥८ ॥
सहज ज्ञान द्वारा ही उस अदृश्य, निर्भय, निरंकार ज्योति प्रभु को जिज्ञासु प्राणी पहचानता है।
समस्त प्राणियों का एकमात्र पालनहार दाता है। यह सबकी ज्योति को अपनी ज्योति के साथ मिलाने में समर्थ है।
पूर्ण शब्द द्वारा तू उस परमात्मा का यशोगान कर जिसका कोई अन्त या सीमा नहीं अथवा सागर की भांति अपरिमित है ॥९॥
भगवान् का नाम ही ज्ञानियों का धन है। वह सहज अवस्था में रहकर नाम का व्यापार करते हैं।
वे दिन-रात हरि नाम रूपी लाभ प्राप्त करते हैं तथा उनके भण्डार नाम से भरे रहते हैं और कभी समाप्त नहीं होते।
हे नानक ! यह नाम के भण्डार दाता प्रभु ने स्वयं उन्हें दिए हैं और इन भण्डारों में कोई कमी नहीं आती ॥१०॥६॥२३॥