तुम स्वयं रचयिता हो, तुम्हारे आदेश से ही सब कुछ होता है।
तुम्हारे अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई नहीं है।
तुम ही रचना कर-करके जीवों के कौतुक देख रहे हो और उनके बारे सब कुछ जानते हो।
हे नानक ! यह भेद गुरु के उन्मुख होने वाले व्यक्ति के अन्दर प्रकाशमान होता है॥ ४॥ २||
आसा महला १ ॥
हे मन ! तेरा ऐसे संसार-सागर में वास हुआ है जहाँ पर शब्द-स्पर्श रूपी रस-गंध जल व तृष्णाग्नि है।
वहाँ मोह रूपी कीचड़ में फँस कर तेरी बुद्धि रूपी चरण परमात्मा की भक्ति की ओर नहीं चल पाएगा, उस सागर में हमने स्वेच्छाचारी जीवों (जो मन के होते हैं) को डूबते देखा है॥ १॥
हे विमूढ मन ! यदि तुम एकाग्रचित होकर प्रभु का सिमरन नहीं करोगे
तो हरि-प्रभु के विस्मृत हो जाने से तेरे सभी गुण नष्ट हो जाएँगे, अथवा परमात्मा को विस्मृत कर देने से तेरे गले में (यमादि का) फँदा पड़ जाएगा ॥ १॥ रहाउ॥
अतः हे मन ! तू अकाल पुरख के समक्ष विनती कर कि मैं यति, सती व ज्ञानी नहीं हूँ, मेरा जीवन महामूर्खों की भाँति निष्फल हो गया है।
हे नानक ! जिन को तू विरमृत नहीं होता, मैं उन संतों की शरण पड़ता हूँ तथा उन्हें प्रणाम करता हूँ
आसा महला ५ ॥
हे मानव ! तुझे जो यह मानव जन्म प्राप्त हुआ है।
यही तुम्हारा प्रभु को मिलने का शुभावसर है : अर्थात् प्रभु का नाम सिमरन करने हेतु ही यह मानव जन्म तुझे प्राप्त हुआ है।
इसके अतिरिक्त किए जाने वाले सांसारिक कार्य तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं।
सिर्फ़ तुम साधु-संतों का संग करके उस अकाल-पुरख का चिन्तन ही करो ॥ १॥
इसलिए इस संसार-सागर से पार उतरने के उद्यम में लग।
अन्यथा माया के प्रेम में रत तुम्हारा यह जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा ॥ १॥ रहाउ॥
हे मानव ! तुमने जप, तप व संयम नहीं किया और न ही कोई पुनीत कार्य करके धर्म कमाया है।
साधु-संतों की सेवा नहीं की है तथा न ही परमेश्वर को स्मरण किया है।
हे नानक ! हम मंद कर्मी जीव हैं।
मुझ शरणागत की लाज रखो ॥ २॥ ४॥
गुरु नानक की बानी 'सोहिला' राग गौड़ी-दीपकी में।
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
जिस सत्संगति में निरंकार की कीर्ति का गान होता है तथा करतार के गुणों का विचार किया जाता है;
उसी सत्संगति रूपी घर में जाकर सृष्टि रचयिता के यश का गायन करो और उसी का सिमरन करो॥ १॥
हे मानव ! तुम उस भय-रहित मेरे वाहेगुरु की प्रशंसा के गीत गाओ।
साथ में यह कहो कि मैं उस सतगुरु पर बलिहार जाता हूँ। जिसका सिमरन करने से सदैव सुखों की प्राप्ति होती है II १ II रहाउ II
हे मानव जीव ! जो पालनहार ईश्वर नित्य-प्रति अनेकानेक जीवों का पोषण कर रहा है, वह तुम पर भी अपनी कृपा-दृष्टि करेगा।
उस ईश्वर द्वारा प्रदत्त पदार्थों का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि वे तो अनन्त हैं।॥ २॥
इस लोक से जाने के लिए साहे-पत्र रूपी संदेश संवत्-दिन आदि लिख कर नियत किया हुआ है, इसलिए वाहेगुरु से मिलाप के लिए अन्य सत्संगियों के साथ मिलकर तेल डालने का शगुन कर लो। अर्थात् - मृत्यु रूपी विवाह होने से पूर्व शुभ-कर्म कर लो ।
हे मित्रो ! अब शुभाशीष दो कि सतगुरु से मिलाप हो जाए॥ ३॥
प्रत्येक घर में इस साहे-पत्र को भेजा जा रहा, नित्य यह संदेश किसी न किसी घर पहुँच रहा है। (नित्य ही कोई न कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा है)
श्री गुरु नानक देव जी कथन करते हैं कि हे जीव ! मृत्यु का निमंत्रण भेजने वाले को स्मरण कर, क्योंकि वह दिन निकट आ रहे हैं II ४ II १ II
रागु आसा महला १ ॥
सृष्टि की रचना में छः शास्त्र हुए, इनके छः ही रचयिता तथा उपदेश भी अपने-अपने तौर पर छः ही हैं।
किंतु इनका मूल तत्व एक ही केवल परमात्मा है, जिसके भेष अनन्त हैं।
हे मनुष्य ! जिस शास्त्र रूपी घर में निरंकार की प्रशंसा हो, उसका गुणगान हो,
उस शास्त्र को धारण कर, इससे तेरी इहलोक व परलोक दोनों में शोभा होगी॥ १॥ रहाउ II
काष्ठा, चसा, घड़ी, पहर, तिथि व वार मिलकर जैसे एक माह बनता है।
और विभिन्न ऋतुएँ एक ही सूर्य से उत्पन्न होती हैं; हे नानक, ठीक उसी तरह, कई रूप सृष्टिकर्ता से उत्पन्न होते हैं। ||२||२||