श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 7


ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੨੮॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२८॥

आदि एक, शुद्ध प्रकाश, जिसका न आदि है, न अंत। सभी युगों में, वह एक और एक ही है। ||२८||

ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥

नमस्कार है, सिर्फ़ उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है।

ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੨੯॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२९॥

जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है ॥२९॥

ਏਕਾ ਮਾਈ ਜੁਗਤਿ ਵਿਆਈ ਤਿਨਿ ਚੇਲੇ ਪਰਵਾਣੁ ॥
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥

एक ब्रह्म की किसी रहस्यमयी युक्ति द्वारा माया की प्रसूति से तीन पुत्र पैदा हुए।

ਇਕੁ ਸੰਸਾਰੀ ਇਕੁ ਭੰਡਾਰੀ ਇਕੁ ਲਾਏ ਦੀਬਾਣੁ ॥
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥

इन में से एक ब्रह्मा सृष्टि रचयिता, एक विष्णु संसार का पोषक, और एक शिव संहारक के रूप में दरबार लगाकर बैठ गया।

ਜਿਵ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਚਲਾਵੈ ਜਿਵ ਹੋਵੈ ਫੁਰਮਾਣੁ ॥
जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥

जिस तरह उस अकाल पुरख को भला लगता है उसी तरह वह इन तीनों को चलाता है और जैसा उसका आदेश होता है वैसा ही कार्य ये देव करते हैं।

ਓਹੁ ਵੇਖੈ ਓਨਾ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵੈ ਬਹੁਤਾ ਏਹੁ ਵਿਡਾਣੁ ॥
ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥

वह अकाल पुरुष तो इन तीनों को आदि व अन्त समय में देख रहा है किंतु इनको वह अदृश्य स्वरूप निरंकार नज़र नहीं आता, यह अश्चर्यजनक बात है।

ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥

नमस्कार है, सिर्फ़ उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है।

ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੩੦॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३०॥

जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है॥ ३०॥

ਆਸਣੁ ਲੋਇ ਲੋਇ ਭੰਡਾਰ ॥
आसणु लोइ लोइ भंडार ॥

उसका आसन प्रत्येक लोक में है तथा प्रत्येक लोक में उसका भण्डार है।

ਜੋ ਕਿਛੁ ਪਾਇਆ ਸੁ ਏਕਾ ਵਾਰ ॥
जो किछु पाइआ सु एका वार ॥

उस परमात्मा ने सभी भण्डारों को एक ही बार परिपूर्ण कर दिया है।

ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ ॥
करि करि वेखै सिरजणहारु ॥

वह सृजनहार रचना कर करके सृष्टि को देख रहा है।

ਨਾਨਕ ਸਚੇ ਕੀ ਸਾਚੀ ਕਾਰ ॥
नानक सचे की साची कार ॥

हे नानक ! उस सत्यस्वरूप निरंकार की सम्पूर्ण रचना भी सत्य है।

ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥

नमस्कार है, सिर्फ़ उस सर्गुण स्वरूप निरंकार को नमस्कार है।

ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ ॥੩੧॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३१॥

जो सभी का मूल, रंग रहित, पवित्र स्वरूप, आदि रहित, अनश्वर व अपरिवर्तनीय स्वरूप है॥ ३१॥

ਇਕ ਦੂ ਜੀਭੌ ਲਖ ਹੋਹਿ ਲਖ ਹੋਵਹਿ ਲਖ ਵੀਸ ॥
इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख वीस ॥

एक जिह्वा से लाख जिह्वा हो जाएँ, फिर लाख से बीस लाख हो जाएँ।

ਲਖੁ ਲਖੁ ਗੇੜਾ ਆਖੀਅਹਿ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਜਗਦੀਸ ॥
लखु लखु गेड़ा आखीअहि एकु नामु जगदीस ॥

फिर एक-एक जिह्वा से लाख-लाख बार उस जगदीश्वर का एक नाम उच्चारण करें अर्थात् निशदिन उस प्रभु का नाम सिमरन किया जाए।

ਏਤੁ ਰਾਹਿ ਪਤਿ ਪਵੜੀਆ ਚੜੀਐ ਹੋਇ ਇਕੀਸ ॥
एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीऐ होइ इकीस ॥

इस मार्ग से पति-परमेश्वर को मिलने हेतु बनी नाम रूपी सीढ़ियों पर चढ़ कर ही उस अद्वितीय प्रभु से मिलन हो सकता है।

ਸੁਣਿ ਗਲਾ ਆਕਾਸ ਕੀ ਕੀਟਾ ਆਈ ਰੀਸ ॥
सुणि गला आकास की कीटा आई रीस ॥

वैसे तो ब्रह्म-ज्ञानियों की बड़ी-बड़ी बातें सुनकर निकृष्ट जीव भी देहाभिमान में अनुकरण करने की इच्छा रखते हैं।

ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਕੂੜੀ ਕੂੜੈ ਠੀਸ ॥੩੨॥
नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥

परंतु गुरु नानक जी कहते हैं कि उस परमात्मा की प्राप्ति तो उसकी कृपा से ही होती है, वरन् ये तो मिथ्या लोगों की मिथ्या ही बातें है ॥ ३२ ॥

ਆਖਣਿ ਜੋਰੁ ਚੁਪੈ ਨਹ ਜੋਰੁ ॥
आखणि जोरु चुपै नह जोरु ॥

अकाल पुरुष की कृपा-दृष्टि के बिना इस जीव में कुछ भी कहने व चुप रहने की शक्ति नहीं है अर्थात् रसना को चला पाना जीव के वश में नहीं है।

ਜੋਰੁ ਨ ਮੰਗਣਿ ਦੇਣਿ ਨ ਜੋਰੁ ॥
जोरु न मंगणि देणि न जोरु ॥

माँगने की भी इसमें ताकत नहीं है और न ही कुछ देने की समर्थता है।

ਜੋਰੁ ਨ ਜੀਵਣਿ ਮਰਣਿ ਨਹ ਜੋਰੁ ॥
जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु ॥

यदि जीव चाहे कि मैं जीवित रहूँ तो भी इसमें बल नहीं है, क्योंकि कई बार मनुष्य उपचाराधीन ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, मरना भी उसके वश में नहीं है।

ਜੋਰੁ ਨ ਰਾਜਿ ਮਾਲਿ ਮਨਿ ਸੋਰੁ ॥
जोरु न राजि मालि मनि सोरु ॥

जिस धन, सम्पत्ति व वैभव को प्राप्त करके मन में अभिमान आता है, उसे प्राप्त करने में जीव का कोई बल नहीं है।

ਜੋਰੁ ਨ ਸੁਰਤੀ ਗਿਆਨਿ ਵੀਚਾਰਿ ॥
जोरु न सुरती गिआनि वीचारि ॥

श्रुति वेदों के ज्ञान का विचार करने का भी इसमें बल नहीं है।

ਜੋਰੁ ਨ ਜੁਗਤੀ ਛੁਟੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
जोरु न जुगती छुटै संसारु ॥

संसार से मुक्त होने की षट्-शास्त्रों में दी गई युक्तियाँ धारण कर लेने की शक्ति भी इसमें नहीं है।

ਜਿਸੁ ਹਥਿ ਜੋਰੁ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸੋਇ ॥
जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ ॥

जिस अकाल पुरख के हाथ में ताकत है वही रचना करके देख रहा है।

ਨਾਨਕ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਨ ਕੋਇ ॥੩੩॥
नानक उतमु नीचु न कोइ ॥३३॥

गुरु नानक जी कहते हैं कि फिर तो यही जानना चाहिए कि इस संसार में न कोई स्वेच्छा से नीच है, न उत्तम है, वह प्रभु जिस को कर्मानुसार जैसा रखता है वैसा ही वह रहता है॥ ३३॥

ਰਾਤੀ ਰੁਤੀ ਥਿਤੀ ਵਾਰ ॥
राती रुती थिती वार ॥

रात्रियों, ऋतुओं, तिथियों, सप्ताह के वारों,

ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਅਗਨੀ ਪਾਤਾਲ ॥
पवण पाणी अगनी पाताल ॥

वायु, जल, अग्नि व पाताल आदि सब प्रपंच है।

ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਧਰਤੀ ਥਾਪਿ ਰਖੀ ਧਰਮ ਸਾਲ ॥
तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल ॥

स्रष्टा प्रभु ने उस में पृथ्वी रूपी धर्मशाला स्थापित करके रखी हुई है, इसी को कर्म-भूमि कहते हैं।

ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਜੀਅ ਜੁਗਤਿ ਕੇ ਰੰਗ ॥
तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥

उस धर्मशाला में नाना प्रकार के जीव हैं, जिनकी अनेक भांति की धर्म-कर्म की उपासना की युक्ति है और उनके श्वेत-श्यामादि अनेक प्रकार के वर्ण हैं।

ਤਿਨ ਕੇ ਨਾਮ ਅਨੇਕ ਅਨੰਤ ॥
तिन के नाम अनेक अनंत ॥

उनके अनेक प्रकार के अनंत नाम हैं।

ਕਰਮੀ ਕਰਮੀ ਹੋਇ ਵੀਚਾਰੁ ॥
करमी करमी होइ वीचारु ॥

संसार में विचरण कर रहे उन अनेकानेक जीवों को अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही उन पर विचार किया जाता है।

ਸਚਾ ਆਪਿ ਸਚਾ ਦਰਬਾਰੁ ॥
सचा आपि सचा दरबारु ॥

विचार करने वाला वह निरंकार स्वयं भी सत्य है और उसका दरबार भी सत्य है।

ਤਿਥੈ ਸੋਹਨਿ ਪੰਚ ਪਰਵਾਣੁ ॥
तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥

वही उसके दरबार में शोभायमान होते हैं जो प्रामाणिक संत हैं,

ਨਦਰੀ ਕਰਮਿ ਪਵੈ ਨੀਸਾਣੁ ॥
नदरी करमि पवै नीसाणु ॥

जिनके माथे पर कृपालु परमात्मा की कृपा का चिन्ह अंकित होता है।

ਕਚ ਪਕਾਈ ਓਥੈ ਪਾਇ ॥
कच पकाई ओथै पाइ ॥

प्रभु के दरबार में कच्चे-पक्के होने का परीक्षण होता है।

ਨਾਨਕ ਗਇਆ ਜਾਪੈ ਜਾਇ ॥੩੪॥
नानक गइआ जापै जाइ ॥३४॥

हे नानक ! इस तथ्य का निर्णय वहाँ जाकर ही होता है ॥ ३४ ॥

ਧਰਮ ਖੰਡ ਕਾ ਏਹੋ ਧਰਮੁ ॥
धरम खंड का एहो धरमु ॥

(कर्मकाण्ड में) धर्मखण्ड का यही नियम है; जो पूर्व पंक्तियों में कथन किया गया है l

ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਕਾ ਆਖਹੁ ਕਰਮੁ ॥
गिआन खंड का आखहु करमु ॥

(गुरु नानक जी) अब ज्ञान खण्ड का व्यवहार वर्णन करते हैं।

ਕੇਤੇ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਵੈਸੰਤਰ ਕੇਤੇ ਕਾਨ ਮਹੇਸ ॥
केते पवण पाणी वैसंतर केते कान महेस ॥

(इस संसार में) कितने प्रकार के पवन, जल, अग्नि हैं, और कितने ही रूप कृष्ण व रुद्र (शिव) के हैं।

ਕੇਤੇ ਬਰਮੇ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਅਹਿ ਰੂਪ ਰੰਗ ਕੇ ਵੇਸ ॥
केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥

कितने ही ब्रह्मा इस सृष्टि में अनेकानेक रूप-रंगों के भेष में जीव पैदा करते हैं।

ਕੇਤੀਆ ਕਰਮ ਭੂਮੀ ਮੇਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਧੂ ਉਪਦੇਸ ॥
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥

कितनी ही कर्म-भूमियों, सुमेर-पर्वत, ध्रुव भक्त व उनके उपदेष्टा हैं।

ਕੇਤੇ ਇੰਦ ਚੰਦ ਸੂਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਮੰਡਲ ਦੇਸ ॥
केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥

इन्द्र व चंद्रमा भी कितने हैं, कितने ही सूर्य, कितने ही मण्डल व मण्डलांतर्गत देश हैं।

ਕੇਤੇ ਸਿਧ ਬੁਧ ਨਾਥ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਦੇਵੀ ਵੇਸ ॥
केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥

कितने ही सिद्ध, विद्वान व नाथ हैं, कितने ही देवियों के स्वरूप हैं।

ਕੇਤੇ ਦੇਵ ਦਾਨਵ ਮੁਨਿ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਰਤਨ ਸਮੁੰਦ ॥
केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥

कितने ही देव, दैत्य व मुनि हैं और रत्नों से भरपूर कितने ही समुद्र हैं।

ਕੇਤੀਆ ਖਾਣੀ ਕੇਤੀਆ ਬਾਣੀ ਕੇਤੇ ਪਾਤ ਨਰਿੰਦ ॥
केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥

कितने ही उत्पत्ति के स्रोत हैं (अण्डज-जरायुजादि), कितनी प्रकार की वाणी है (परा, पश्यन्ती आदि) कितने ही बादशाह हैं और कितने ही राजा हैं।

ਕੇਤੀਆ ਸੁਰਤੀ ਸੇਵਕ ਕੇਤੇ ਨਾਨਕ ਅੰਤੁ ਨ ਅੰਤੁ ॥੩੫॥
केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु ॥३५॥

कितनी ही वेद-श्रुतियाँ हैं, उनके सेवक भी कितने ही हैं, गुरु नानक जी कहते हैं कि उसकी रचना का कोई अन्त नहीं है; इन सबके अन्त का बोध ज्ञान-खण्ड में जाने से होता है, जहाँ पर जीव ज्ञानवान हो जाता है ॥ ३५ ॥

ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਮਹਿ ਗਿਆਨੁ ਪਰਚੰਡੁ ॥
गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥

ज्ञान खण्ड में जो ज्ञान कथित है वह प्रबल है।

ਤਿਥੈ ਨਾਦ ਬਿਨੋਦ ਕੋਡ ਅਨੰਦੁ ॥
तिथै नाद बिनोद कोड अनंदु ॥

इस खण्ड में रागमयी, प्रसन्नतापूर्ण व कौतुकी आनंद विद्यमान है।


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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