चौरासी लाख योनियों के जीव अर्थात्-सृष्टि के समस्त प्राणी उस परमात्मा के मिलन को तरस रहे हैं, किन्तु जिसे वह स्वयं दया-दृष्टि करके मिलाता है, वही परमात्मा से आकर मिल सकता है।
नानक देव जी कथन करते हैं जो गुरु उपदेशानुसार हरि-नाम में लीन हुए हैं, उन्होंने ही हरि-प्रभु को प्राप्त किया है ॥४॥६॥३९ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
हरि-नाम सुखों का सागर है तथा इसे गुरु के उपदेशानुसार ही पाया जा सकता है।
प्रतिदिन प्रभु-नाम का चिंतन करने से जीव स्वाभाविक ही परमेश्वर में समा जाता है।
यदि जीव का अंतर्मन सत्य स्वरूप परमात्मा के साथ मिल जाए तो जिह्वा हरि-प्रभु का गुणगान करती है ॥ १॥
हे भाई ! द्वैत-भाव के कारण सम्पूर्ण जगत् दु:खी हो रहा है।
यदि गुरु की शरण में आकर जीव नित्य प्रति नाम-स्मरण करता रहे तो वह आत्मिक सुख प्राप्त करता है ॥ १॥ रहाउ ॥
ऐसे सत्य प्राणी को कभी पापों की मैल नहीं लगती और वह शुद्ध मन से हरि-प्रभु का नाम-सिमरन करता है।
गुरु-उपदेश को पहचानने से हरि-प्रभु के अमृत रूपी नाम में समाया जा सकता है।
जिस जीव ने अपने हृदय में तीक्ष्ण ज्ञान का दीपक जला लिया अर्थात् गुरु उपदेश से प्राप्त परब्रह्म के ज्ञान का दीपक तो उसके हृदय से अज्ञानता का अंधकार नष्ट हो जाता है। ॥२॥
स्वेच्छाचारी जीव अहंकार, तृष्णादि विकारों की मैल से मलिन हो रहे हैं।
गुरु के उपदेश बिना यह मैल कभी नहीं उतरती, ऐसे में जीव आवागमन के चक्र में फँस कर पीड़ित होता है।
वह मायावी क्रीड़ा में खचित हुए भाव संसार के मोह माया के जाल में फंसे हुए रहते हैं और इस कारण वह न तो इस संसार का सुख भोग पाते हैं तथा न ही परलोक का आनंद ले पाते हैं। ॥ ३॥
गुरुमुख जीव जप, तप व संयम में रह कर हरि-प्रभु के नाम से प्रीति करता है।
ऐसा जीव सदैव ईश्वर के एक नाम का सिमरन करता है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि समस्त प्राणियों का आसरा केवल नाम सिमरन ही है ॥४॥७॥४०॥
स्रीरागु महला ३ ॥
स्वेच्छाचारी जीव माया के मोह में फंसा होने के कारण उदासीनता एवं वैराग्य प्राप्त नहीं कर सकता।
वह गुरु-उपदेश के रहस्य को नहीं समझता, इसलिए वह परमात्मा के दर पर अपनी प्रतिष्ठा खो देता है।
यदि वह गुरुमुख होकर अहंत्व का त्याग करके परमात्मा के नाम में लीन होता है, तभी उसे आत्मिक आनंद की प्राप्ति होगी॥ १॥
हे मन ! तुझ में सदैव भौतिक पदार्थों की कामना ही भरी रहती है।
परिपूर्ण सतगुरु की सेवा करने से यह मोह पूरी तरह सड़ जाता है तथा जीव गृहस्थ जीवन में ही उदासीन रहता है।॥ १॥ रहाउ॥
गुरु की शरण लेकर यदि जीव धर्म कार्य करे तो वह परमात्मा की प्रसन्नता प्राप्त करता है तथा वैराग्य का आनंद उठाता है।
वह अपने अंतर्मन से अहंत्व का त्याग करके निश्चित होकर नित्य-प्रति दिन-रात ईश्वर की उपासना करता है।
ऐसा जीव सौभाग्य से ही सत्संगति पाता है और वह स्वाभाविक ही परमात्मा को प्राप्त कर लेता है II २ II
वास्तविक तौर पर साधु और वैरागी वही है जो हृदय में प्रभु-नाम को धारण कर ले।
उसके मन में तनिक भी तामसिकता नहीं रहती तथा वह अंतर्मन से अहंत्व को मिटा लेता है।
प्रभु का यह नाम रूपी खज़ाना सतगुरु ने ही दिखाया है और हरि-प्रभु का नाम-रस पीकर वह तृप्त हो गए॥ ३॥
जिस किसी ने भी हरि-नाम को प्राप्त किया तो उसने सौभाग्य, वैराग्य तथा सत्संगति द्वारा ही पाया है।
भौतिक पदार्थों में आसक्त जीव (मनमुख) सतगुरु को नहीं पहचानता अर्थात् वह गुरु का उपदेश ग्रहण नहीं करता, क्योंकि उसके अंदर अहंकार प्रबल होता है तथा वह योनियों में ही भटकता रहता है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु के उपदेश में अनुरक्त जीव परमात्मा के नाम में रंग गए तथा यह रंग प्रभु के भय के बिना नहीं लग सकता॥ ४॥ ८ ॥ ४१ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥
शरीर (घर) द्वारा ही नाम रूपी सौदा प्राप्त होता है, क्योंकि अंतर्मन में समस्त पदार्थ व्याप्त हैं।
लेकिन यह सौदा किसी विशेष गुरुमुख जीव को प्रतिक्षण नाम-सिमरन करने से ही प्राप्त होता है।
प्रभु का नाम-भण्डार अक्षुण्ण है और यह सौभाग्य से ही प्राप्त होता है॥ १॥
हे प्राणी मन ! अपने भीतर से निंदा, अहंकार और गर्व का त्याग कर दे।