श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 66


ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥

श्रीरागु महला ३॥

ਪੰਖੀ ਬਿਰਖਿ ਸੁਹਾਵੜਾ ਸਚੁ ਚੁਗੈ ਗੁਰ ਭਾਇ ॥
पंखी बिरखि सुहावड़ा सचु चुगै गुर भाइ ॥

जिस प्रकार पेड़ों पर बैठे और फलों को चुगते हुए पक्षी सुंदर लगते हैं, उसी प्रकार गुरु के प्रति प्रेम के माध्यम से भगवान् पर ध्यान केंद्रित करने से भक्त का जीवन सुंदर हो जाता है।

ਹਰਿ ਰਸੁ ਪੀਵੈ ਸਹਜਿ ਰਹੈ ਉਡੈ ਨ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
हरि रसु पीवै सहजि रहै उडै न आवै जाइ ॥

वह हरि रस का पान करता है और परम आनंद में रहता है माया के लिए इधर-उधर नहीं भटकता है और इस तरह जन्म और मृत्यु के चक्र से बच जाता है।

ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸਾ ਪਾਇਆ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥
निज घरि वासा पाइआ हरि हरि नामि समाइ ॥१॥

वह अपने आत्म स्वरूप के अन्दर आवास प्राप्त कर लेता है और हरि-नाम में लीन हो जाता है।॥१॥

ਮਨ ਰੇ ਗੁਰ ਕੀ ਕਾਰ ਕਮਾਇ ॥
मन रे गुर की कार कमाइ ॥

हे मेरे मन ! तू गुरु की सेवा करके उनके उपदेशानुसार पालन कर।

ਗੁਰ ਕੈ ਭਾਣੈ ਜੇ ਚਲਹਿ ਤਾ ਅਨਦਿਨੁ ਰਾਚਹਿ ਹਰਿ ਨਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुर कै भाणै जे चलहि ता अनदिनु राचहि हरि नाइ ॥१॥ रहाउ ॥

यदि तुम गुरु की इच्छानुसार चलोगे, तब तुम रात-दिन ईश्वर के नाम में लीन रहोगे ॥१॥ रहाउ॥

ਪੰਖੀ ਬਿਰਖ ਸੁਹਾਵੜੇ ਊਡਹਿ ਚਹੁ ਦਿਸਿ ਜਾਹਿ ॥
पंखी बिरख सुहावड़े ऊडहि चहु दिसि जाहि ॥

यद्यपि जो लोग जीवन में सुंदर (आरामदायक) दिखते हैं, वह माया रूपी दाना चुगने के लिए उड़कर चारों दिशाओं में जाते रहते हैं भाव वें अधिक से अधिक सांसारिक धन प्राप्त करने के लिए इधर-उधर भागते रहते हैं।

ਜੇਤਾ ਊਡਹਿ ਦੁਖ ਘਣੇ ਨਿਤ ਦਾਝਹਿ ਤੈ ਬਿਲਲਾਹਿ ॥
जेता ऊडहि दुख घणे नित दाझहि तै बिललाहि ॥

जितना अधिक वह (ऊपर) उड़ते हैं, उतना अधिक कष्ट सहन करते हैं। वे सदैव दुखों-संतापों में ग्रस्त रहकर जलते एवं विलाप करते हैं।

ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮਹਲੁ ਨ ਜਾਪਈ ਨਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਫਲ ਪਾਹਿ ॥੨॥
बिनु गुर महलु न जापई ना अंम्रित फल पाहि ॥२॥

गुरु के अतिरिक्त उनको परमेश्वर का महल दिखाई नहीं देता, न ही वह अमृत फल को प्राप्त करते हैं। ॥२॥

ਗੁਰਮੁਖਿ ਬ੍ਰਹਮੁ ਹਰੀਆਵਲਾ ਸਾਚੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
गुरमुखि ब्रहमु हरीआवला साचै सहजि सुभाइ ॥

ब्रह्म का रूप गुरुमुख सदैव हरे-भरे वृक्ष जैसा है। उसको स्वाभाविक ही सत्य परमेश्वर की प्रीत की कृपा प्राप्त होती है।

ਸਾਖਾ ਤੀਨਿ ਨਿਵਾਰੀਆ ਏਕ ਸਬਦਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
साखा तीनि निवारीआ एक सबदि लिव लाइ ॥

गुरुमुख व्यक्ति ने भगवान् की स्तुति के दिव्य शब्द में डूबे रहकर माया की तीनों शाखाओं (सत्, रज और तम्) को काट कर विजय प्राप्त कर ली है।

ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਫਲੁ ਹਰਿ ਏਕੁ ਹੈ ਆਪੇ ਦੇਇ ਖਵਾਇ ॥੩॥
अंम्रित फलु हरि एकु है आपे देइ खवाइ ॥३॥

वह मनुष्य ईश्वर के नाम का अमृतमयी फल धारण करता है। ईश्वर स्वयं ही कृपा करके ऐसे गुरु के अनुयायी को इस अमृत फल सेवन करने के लिए आनंद लेने देते हैं ॥३॥

ਮਨਮੁਖ ਊਭੇ ਸੁਕਿ ਗਏ ਨਾ ਫਲੁ ਤਿੰਨਾ ਛਾਉ ॥
मनमुख ऊभे सुकि गए ना फलु तिंना छाउ ॥

मनमुख ऐसे वृक्ष हैं, जो खड़े-खड़े सूख जाते हैं। उनमें कोई फल और छाया नहीं।

ਤਿੰਨਾ ਪਾਸਿ ਨ ਬੈਸੀਐ ਓਨਾ ਘਰੁ ਨ ਗਿਰਾਉ ॥
तिंना पासि न बैसीऐ ओना घरु न गिराउ ॥

इन अज्ञानी प्राणियों की संगति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनका कोई भी घर और गांव नहीं होता।

ਕਟੀਅਹਿ ਤੈ ਨਿਤ ਜਾਲੀਅਹਿ ਓਨਾ ਸਬਦੁ ਨ ਨਾਉ ॥੪॥
कटीअहि तै नित जालीअहि ओना सबदु न नाउ ॥४॥

वे सदैव दुःखी और सुखी होते हैं। उनके पास न तो गुरु का उपदेश और न ही हरि का नाम है ॥४॥

ਹੁਕਮੇ ਕਰਮ ਕਮਾਵਣੇ ਪਇਐ ਕਿਰਤਿ ਫਿਰਾਉ ॥
हुकमे करम कमावणे पइऐ किरति फिराउ ॥

मनुष्य ईश्वर के आदेश अनुसार कर्म करते हैं और अपने पूर्व-जन्म के कर्मों के अनुकूल भटकते फिरते हैं।

ਹੁਕਮੇ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖਣਾ ਜਹ ਭੇਜਹਿ ਤਹ ਜਾਉ ॥
हुकमे दरसनु देखणा जह भेजहि तह जाउ ॥

गुरमुख ईश्वर के आदेशानुसार उसकी दिव्य दृष्टि का अनुभव करते हैं और वह वही कार्य करते हैं जो आप उनसे कराना चाहते हैं।

ਹੁਕਮੇ ਹਰਿ ਹਰਿ ਮਨਿ ਵਸੈ ਹੁਕਮੇ ਸਚਿ ਸਮਾਉ ॥੫॥
हुकमे हरि हरि मनि वसै हुकमे सचि समाउ ॥५॥

ईश्वर के आदेश द्वारा गुरमुखों के हृदय में प्रभु का नाम बस जाता है और उस प्रभु के आदेश द्वारा ही वह सत्य नाम में लीन हो जाते हैं ॥५॥

ਹੁਕਮੁ ਨ ਜਾਣਹਿ ਬਪੁੜੇ ਭੂਲੇ ਫਿਰਹਿ ਗਵਾਰ ॥
हुकमु न जाणहि बपुड़े भूले फिरहि गवार ॥

कुछ ऐसे अधम लोग हैं जो ईश्वर की इच्छा को नहीं समझते और यह अज्ञानी लोग भ्रम में पड़े जन्म-मरण के चक्र में पड़कर भटकते फिरते हैं।

ਮਨਹਠਿ ਕਰਮ ਕਮਾਵਦੇ ਨਿਤ ਨਿਤ ਹੋਹਿ ਖੁਆਰੁ ॥
मनहठि करम कमावदे नित नित होहि खुआरु ॥

मन के हठ अनुसार वह कर्म करते हैं और नित्य ही कलंकित होते हैं।

ਅੰਤਰਿ ਸਾਂਤਿ ਨ ਆਵਈ ਨਾ ਸਚਿ ਲਗੈ ਪਿਆਰੁ ॥੬॥
अंतरि सांति न आवई ना सचि लगै पिआरु ॥६॥

उनके अंदर सुख-शांति नहीं आती और वे सत्य-स्वरूप हरि के साथ प्रेम नहीं कर पाते ॥६॥

ਗੁਰਮੁਖੀਆ ਮੁਹ ਸੋਹਣੇ ਗੁਰ ਕੈ ਹੇਤਿ ਪਿਆਰਿ ॥
गुरमुखीआ मुह सोहणे गुर कै हेति पिआरि ॥

जो गुरु के साथ प्रीति एवं स्नेह करते हैं। उन गुरमुखों के मुख सुन्दर हो जाते हैं।

ਸਚੀ ਭਗਤੀ ਸਚਿ ਰਤੇ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸਚਿਆਰ ॥
सची भगती सचि रते दरि सचै सचिआर ॥

वे सत्य की भक्ति में लीन रहते हैं और सत्य के साथ रंगे रहते हैं और परमेश्वर के द्वार पर वे सत्यवादी रूप में सम्मानित होते हैं

ਆਏ ਸੇ ਪਰਵਾਣੁ ਹੈ ਸਭ ਕੁਲ ਕਾ ਕਰਹਿ ਉਧਾਰੁ ॥੭॥
आए से परवाणु है सभ कुल का करहि उधारु ॥७॥

उन मनुष्यों का ही जगत् में आगमन स्वीकृत होता है और अपनी समस्त कुल का भी उद्धार कर देते हैं। ॥७ ॥

ਸਭ ਨਦਰੀ ਕਰਮ ਕਮਾਵਦੇ ਨਦਰੀ ਬਾਹਰਿ ਨ ਕੋਇ ॥
सभ नदरी करम कमावदे नदरी बाहरि न कोइ ॥

प्रत्येक प्राणी ईश्वर की दृष्टि अधीन कर्म करता है। कोई भी प्राणी उसकी दृष्टि से ओझल नहीं।

ਜੈਸੀ ਨਦਰਿ ਕਰਿ ਦੇਖੈ ਸਚਾ ਤੈਸਾ ਹੀ ਕੋ ਹੋਇ ॥
जैसी नदरि करि देखै सचा तैसा ही को होइ ॥

परमात्मा जिस पर जैसी कृपा-दृष्टि करता है, मनुष्य वैसा ही हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਵਡਾਈਆ ਕਰਮਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥੮॥੩॥੨੦॥
नानक नामि वडाईआ करमि परापति होइ ॥८॥३॥२०॥

हे नानक ! मनुष्य को नाम द्वारा ही यश मिलता है और नाम की उपलब्धि भगवान् की कृपा से होती है ॥८॥३॥२०॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥

श्रीरागु महला ३॥

ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਮਨਮੁਖਿ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥
गुरमुखि नामु धिआईऐ मनमुखि बूझ न पाइ ॥

गुरमुख भगवान् के नाम का ध्यान करते हैं किन्तु मनमुख को भगवान् के ध्यान की सूझ नहीं होती।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਦਾ ਮੁਖ ਊਜਲੇ ਹਰਿ ਵਸਿਆ ਮਨਿ ਆਇ ॥
गुरमुखि सदा मुख ऊजले हरि वसिआ मनि आइ ॥

गुरमुख का मुख हमेशा उज्ज्वल रहता है और भगवान् उसके हृदय में निवास करता है।

ਸਹਜੇ ਹੀ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਸਹਜੇ ਰਹੈ ਸਮਾਇ ॥੧॥
सहजे ही सुखु पाईऐ सहजे रहै समाइ ॥१॥

उसे सहज ही सुख की उपलब्धि होती है। वह सहज ही नाम में मग्न रहता है। ॥१॥

ਭਾਈ ਰੇ ਦਾਸਨਿ ਦਾਸਾ ਹੋਇ ॥
भाई रे दासनि दासा होइ ॥

हे भाई ! तू परमात्मा के अनुचरों का अनुचर बन जा।

ਗੁਰ ਕੀ ਸੇਵਾ ਗੁਰ ਭਗਤਿ ਹੈ ਵਿਰਲਾ ਪਾਏ ਕੋਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुर की सेवा गुर भगति है विरला पाए कोइ ॥१॥ रहाउ ॥

गुरु की सेवा से ही गुरु की भक्ति है किन्तु इसकी उपलब्धि कोई दुर्लभ ही प्राप्त करता है ॥१॥ रहाउ॥

ਸਦਾ ਸੁਹਾਗੁ ਸੁਹਾਗਣੀ ਜੇ ਚਲਹਿ ਸਤਿਗੁਰ ਭਾਇ ॥
सदा सुहागु सुहागणी जे चलहि सतिगुर भाइ ॥

जो भाग्यशाली नारी सतगुरु की इच्छानुसार आचरण करती है, वह सदैव सौभाग्यवती होती है।

ਸਦਾ ਪਿਰੁ ਨਿਹਚਲੁ ਪਾਈਐ ਨਾ ਓਹੁ ਮਰੈ ਨ ਜਾਇ ॥
सदा पिरु निहचलु पाईऐ ना ओहु मरै न जाइ ॥

वह अमर व अचल स्वामी को प्राप्त हो जाती है। न वह मरता है और न ही जाता है।

ਸਬਦਿ ਮਿਲੀ ਨਾ ਵੀਛੁੜੈ ਪਿਰ ਕੈ ਅੰਕਿ ਸਮਾਇ ॥੨॥
सबदि मिली ना वीछुड़ै पिर कै अंकि समाइ ॥२॥

वह शब्द द्वारा प्रभु से मिलाप करती है, इसलिए उसे वियोग प्राप्त नहीं होता। अपितु अपने स्वामी की गोद में लीन हो जाती है। ॥ २॥

ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਅਤਿ ਊਜਲਾ ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਪਾਇਆ ਨ ਜਾਇ ॥
हरि निरमलु अति ऊजला बिनु गुर पाइआ न जाइ ॥

हरि पवित्र व अत्यंत उज्ज्वल है। गुरु के बिना वह प्राप्त नहीं होता।

ਪਾਠੁ ਪੜੈ ਨਾ ਬੂਝਈ ਭੇਖੀ ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਇ ॥
पाठु पड़ै ना बूझई भेखी भरमि भुलाइ ॥

धर्म-ग्रंथों के अध्ययन द्वारा मनुष्य को ईश्वर का बोध नहीं होता। आडम्बर करने वाले भ्रम-भुलैया में पड़े भटकते रहते हैं।

ਗੁਰਮਤੀ ਹਰਿ ਸਦਾ ਪਾਇਆ ਰਸਨਾ ਹਰਿ ਰਸੁ ਸਮਾਇ ॥੩॥
गुरमती हरि सदा पाइआ रसना हरि रसु समाइ ॥३॥

भगवान् तो सदैव ही गुरु की मति द्वारा प्राप्त हुआ है। गुरमुख की रसना में हरि रस समाया रहता है ॥३॥

ਮਾਇਆ ਮੋਹੁ ਚੁਕਾਇਆ ਗੁਰਮਤੀ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
माइआ मोहु चुकाइआ गुरमती सहजि सुभाइ ॥

गुरु के उपदेश द्वारा मनुष्य माया के मोह को नष्ट कर देता है। वह सहज अवस्था प्राप्त करके भगवान् के प्रेम में मग्न रहता है।


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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