सर्वव्यापक निरंकार समस्त प्राणियों के हृदय में अभेद समा रहा है।
संसार में कोई दाता बना हुआ है, कोई भिक्षु का रूप लिया हुआ है, हे परमात्मा ! यह सब तुम्हारा ही आश्चर्यजनक कौतुक है।
तुम स्वयं ही देने वाले हो और स्वयं ही भोक्ता हो, तुम्हारे बिना में किसी अन्य को नहीं जानता।
तुम पारब्रह्म हो, तुम तीनों लोकों में अंतरहित हो, मैं तुम्हारे गुणों को मुख से कथन कैसे करूं।
सतगुरु जी कथन करते हैं कि जो जीव आप का अंतर्मन से सिमरन करते हैं, सेवा-भाव से समर्पित होते हैं उन पर मैं न्योछावर होता हूँ॥ २॥
हे निरंकार ! जो आपका मन व वाणी द्वारा ध्यान करते हैं, वो मानव-जीव युगों-युगों तक सुखों का भोग करते हैं।
जिन्होंने आपका सिमरन किया है वे इस संसार से मुक्ति प्राप्त करते हैं और उनका यम-पाश टूट जाता है।
जिन्होंने भय से मुक्त होकर उस अभय स्वरूप अकाल-पुरख का ध्यान किया है उनके जीवन का समस्त (जन्म-मरण व यमादि का) भय वह समाप्त कर देता है।
जिन्होंने निरंकार का चिन्तन किया, सेवा-भाव से उस में लीन हुए, वे तुम्हारे दु:खहर्ता रूप में ही विलीन हो गए।
हे नानक ! जिन्होंने नारायण स्वरूप निरंकार का सिमरन किया, वे धन्य ही धन्य हैं, मैं उन पर कुर्बान होता हूँ II ३ ॥
हे अनंत स्वरूप ! तेरी भक्ति के खजाने भक्तों के हृदय में अनंतानंत भरे हुए हैं।
तेरे भक्त तीनों काल तेरी प्रशंसा के गीत गाते हैं कि हे परमेश्वर ! तू अनेकानेक व अनंत स्वरूप हैं।
संसार में तेरी नाना प्रकार से आराधना और जप-तपादि द्वारा साधना की जाती है।
अनेकानेक ऋषि-मुनि व विद्वान कई तरह के शास्त्र, स्मृतियों का अध्ययन करके तथा षट्-कर्म, यज्ञादि धर्म कार्यों द्वारा तुम्हारा स्तुति-गान करते हैं।
हे नानक ! वे समस्त श्रद्धालु भक्त संसार में भले हैं जो निरंकार को अच्छे लगते हैं II ४ II
हे अकाल पुरख ! तुम अपरिमेय पारब्रह्म अनन्त स्वरूप हो, तुम्हारे समान अन्य कोई भी नहीं है।
युगों युगों से तुम एक हो, सदा सर्वदा तुम अद्वितीय स्वरूप हो और तुम ही निश्चल रचयिता हो।
जो तुम्हें भला लगता है वही घटित होता है, जो तुम स्वेच्छा से करते हो वही कार्य होता है।
तुमने स्वयं ही इस सृष्टि की रचना की है और स्वयं ही रच कर उसका संहार भी करता है।
हे नानक ! मैं उस स्रष्टा प्रभु का गुणगान करता हूँ, जो समस्त सृष्टि का सृजक है अथवा जो समस्त जीवों के अन्तर्मन का ज्ञाता है II ५ II १ II
आसा महला ४ ॥
हे निरंकार ! तुम ही सृजनहार हो, सत्यस्वरूप हो और मेरे मालिक हो।
जो तुम्हें भला लगता है वही होता है, जो तुम देते हो वही मैं प्राप्त करता हूँ॥ १॥ रहाउ ॥
सम्पूर्ण सृष्टि तुम्हारी पैदा की हुई है, तुम्हें सभी जीवों ने स्मरण किया है
किंतु जिन पर तुम्हारी दया होती है, उन्होंने ही तुम्हारा नाम रूपी रत्न-पदार्थ प्राप्त किया है।
यह नाम-रत्न श्रेष्ठ साधक पा जाते हैं और स्वेच्छाचारी मनुष्य इसे गंवा बैठते हैं l
तुम स्वयं ही विच्छन्न करते हो और स्वयं ही सम्मिलित करते हो। ॥ १॥
हे परमेश्वर ! तुम नदी हो, सारा प्रपंच तुझ में ही तरंग रूप है।
तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं है।
सृष्टि के सभी छोटे-बड़े जीव तुम्हारा ही कौतुक है।
वियोगी कर्मों के कारण जो तुम में लीन था, वह बिछुड़ गया और संयोग के कारण बिछुड़ा हुआ तुम से आ मिला है; अर्थात् तुम्हारी कृपा से जिन्हें सत्संगति प्राप्त नहीं हुई वे तुम से अलग हो गए और जिन्हें संतों का संग मिल गया उन्हें तुम्हारी भक्ति प्राप्त हो गई॥ २॥
हे परमात्मा ! जिसे तुम गुरु द्वारा ज्ञान प्रदान करते हो वही इस विधि को जान सकता है। फिर वही सदैव तेरे गुणों का व्याख्यान करता है।
फिर वही सदैव तेरे गुणों का व्याख्यान करता है।
जिन्होंने उस अकाल पुरख का सिमरन किया है, उन्होंने आत्मिक सुखों की प्राप्ति की है।
फिर वह परम पुरुष सरलता से ही प्रभु-नाम में समाहित हो जाता है॥ ३॥