जिसने सतगुरु के उपदेशों का पालन करके गुणों के भण्डार प्रभु को प्राप्त कर लिया है उसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता।
पूज्य प्रभु मेरा मित्र है और अंतिम काल में मेरा सहायक होगा ॥३॥
माता-पिता के घर भाव इस संसार में, स्वेच्छाचारी व्यक्ति ने ईश्वर, परोपकारी और संसार के जीवन को त्यागकर अपना सम्मान खो दिया है।
सतगुरु के उपदेशों के बिना कोई भी जीवन का सही मार्ग नहीं जानता। माया के प्रेम में अंधे होकर व्यक्ति को कोई आध्यात्मिक सहारा नहीं मिलता।
यदि सुखदाता परमेश्वर मनुष्य के हृदय में निवास नहीं करता तो अंतिमकाल में वह मनुष्य पश्चाताप करता हुआ गमन कर जाता है।॥४॥
मेरे पिता के घर से इस दुनिया में, है गुरु उपदेशों के माध्यम से, मैं अपने मन के भीतर महान दाता, विश्व के जीवन की खेती की जाती है।
वह प्रतिदिन भगवान् की भक्ति करता है तथा वह अपने अहंत्व एवं मोह को मिटा देता है।
मनुष्य जिसके प्रेम में मग्न रहता है, वह स्वयं भी उस जैसा बन जाता है तथा सत्य में ही समा जाता है ॥ ५॥
अपनी कृपा दृष्टि प्रदान करते हुए, वह हमें अपना प्रेम प्रदान करते हैं, और हम गुरु के शब्द का मनन करते हैं।
सतगुरु की सेवा से प्राणी को बड़ा सुख उत्पन्न होता है और मनुष्य का अहंकार एवं तृष्णा मिट जाती है।
गुणदाता प्रभु क्षमाशील है, वह सदैव ही उसके चित्त में वास करता है, जो सत्य को अपने हृदय में बसाए रखता है ॥ ६॥
मेरा प्रभु सदैव निर्मल है। निर्मल मन के साथ ही वह प्राप्त होता है।
यदि गुणों के भण्डार भगवान् का नाम उसके हृदय में बस जाए, तो अहंकार एवं दुःख निवृत्त हो जाते हैं।
जिन सतगुरु ने मुझे परमात्मा की स्तुति के दिव्य शब्द का पाठ सुनाया है। मैं उन पर सदैव बलिहार जाता हूँ॥ ७ ॥
प्राणी के अन्तर्मन का अभिमान कहने-कहलाने अथवा पढ़ने-पढ़ाने से दूर नहीं होता किन्तु गुरु के बिना अभिमान का कोई अंत नहीं।
हरि आप ही भक्त-वत्सल है, और सुखों के दाता हैं। वह कृपा करके स्वयं ही मन में आकर निवास करते हैं।
हे नानक ! भगवान् स्वयं ही गुरु के माध्यम से मनुष्य को शोभा, सुरति एवं ख्याति प्रदान करते हैं ॥ ८ ॥ १॥ १८ ॥
श्रीरागु महला ३॥
जो प्राणी अपने अहंकारवश कर्म करते हैं, उन्हें यमदूतों की बड़ी प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।
जो प्राणी सतगुरु की सेवा करते हैं, वे भगवान् में सुरति लगाकर यमदूतों की प्रताड़ना से बच जाते हैं।॥ १॥
हे मेरे मन ! गुरु की संगति में ईश्वर की आराधना कर,"
जिनके भाग्य में विधाता ने पूर्व से ही निर्दिष्ट कर लिखा है, वह सतगुरु के उपदेश द्वारा नाम के अंदर लिवलीन हो जाते हैं। १॥ रहाउ॥
सतगुरु के बिना प्राणी के हृदय में भगवान् के प्रति श्रद्धा स्थिर नहीं होती और न ही ईश्वर नाम के साथ प्रीति उत्पन्न होती है।
ऐसे प्राणी को स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता और वह पीड़ा में ही सोता और मरता है ॥ २॥
चाहे जीव भगवान् का नाम जपने की तीव्र इच्छा रखता हो परन्तु उसके पूर्व जन्म के कर्म मिटाए नहीं जा सकते।
भक्तों ने भगवान् की इच्छा को ही माना है और ऐसे भक्त भगवान् के दरबार पर स्वीकृत हुए हैं।॥ ३॥
गुरु बड़ी प्रेम-भावना से उपदेश प्रदान करते हैं परन्तु उसकी कृपा के बिना नाम की प्राप्ति नहीं हो सकती।
चाहे विषैले पौधे को सैंकड़ों बार अमृत रस से सींचा जाए, फिर भी विषैले पौधे पर विषैले फल ही लगेंगे॥ ४॥
वह पुरुष सत्यवादी एवं निर्मल हैं, जिनका सतगुरु के साथ प्रेम है।
वह सतगुरु की इच्छानुसार कर्म करते हैं और अहंकार एवं बुराइयों के विष को त्याग देते हैं।॥ ५॥
मन के हठ द्वारा किसी भी विधि से मनुष्य की मुक्ति नहीं हो सकती। चाहे स्मृति, शास्त्रादि प्रामाणिक ग्रंथों का अध्ययन करके देख लो।
जो साधु की संगति में मिलकर गुरु की वाणी की साधना करते हैं, वे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।॥ ६॥
हरि का नाम गुणों का अमूल्य भण्डार है, जिसका कोई अंत अथवा पारावार नहीं।
परमात्मा की जिन पर कृपा होती है, वहीं गुरमुख शोभा पाते हैं।॥ ७ ॥
हे नानक ! एक प्रभु ही समस्त जीवों का दाता है, अन्य दूसरा कोई नहीं।
गुरु की कृपा से वह प्राप्त होता है। उनकी दया से वह पाया जाता है। ||८||२||१९||