पूर्व जन्म के शुभ कर्मों के आधार पर जीव ईश्वर को प्राप्त करता है तथा वह अपने उस लक्ष्मी पति परमेश्वर से जुड़ जाता जिससे वह लम्बे समय से विमुक्त है।
मेरे चित्त के भीतर यह विश्वास दृढ़ हो गया है कि वह परम पिता परमेश्वर प्रत्येक जीव के भीतर तथा बाहर सकल ब्रह्मांड में व्यापत है।
श्री नानक यह उपदेश देते हैं कि हे मेरे प्रिय मित्र मन ! तुम सदा संतों की संगति में निवास करो। ॥४॥
हे मेरे प्रिय मन, मेरे मित्र, जिस मनुष्य का मन भगवान् के प्रेम और भक्ति में लीन रहता है
हे प्रिय मन, मेरे मित्र, ईश्वर का अनुभव होने पर, वह व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से उसी प्रकार जीवित रहता है जैसे मछली पानी में वापिस लौटने पर जीवन प्राप्त कर लेती है।
जो व्यक्ति ईश्वर की स्तुति के अमृतमय शब्दों द्वारा माया की लालसा का त्याग कर तृप्त हो जाते हैं, उनके मन को सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं।
वह भगवान् को पा लेते हैं और भगवान् का मंगल गायन करते हैं। सतगुरु उन पर प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं तथा वह प्रसन्नतापूर्वक गीत गाता है।
जगत् के स्वामी प्रभु उन्हें अपने साथ मिला लेते हैं और उन्हें अपना नाम की आशिष प्रदान करते हैं, जिसे प्राप्त कर जीव को ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उसे नवनिधियों से भरा खजाना मिला हो।
हे नानक ! जिसे संतों ने नाम-सिमरन की शिक्षा समझा दी है, वह भगवान् की प्रेम-भक्ति में मग्न रहता है। ॥५॥१॥२॥
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
डखणा ॥
मेरा प्रिय-प्रभु मेरे अन्तर्मन में ही निवास करते हैं। फिर मैं उनके दर्शन कैसे करूँ।
हे नानक ! संतों की शरण ग्रहण करने से प्राणों के आधार प्रभु मिल जाते हैं। ॥ १॥
छंद॥
प्रभु के चरण-कमलों के प्रति प्रेम और भक्ति केवल संतों के मन में उद्भूत होती है।
ईश्वरव के अतिरिक्त किसी अन्य से प्रेम करना प्रभु भक्तों की आस्था एवं मर्यादा के विरुद्ध है जोकि उन्हें रास नहीं आता।
प्रभु की कृपापूर्ण दृष्टि के अतिरिक्त उनके भक्तों के लिए कुछ भी सुखद नहीं। इसके बिना उनके भक्त एक क्षण भर के लिए भी कैसे धैर्य धारण कर सकते हैं ?
जैसे मछली जल के बिना तड़प-तड़प कर मर जाती है, वैसे ही नाम के बिना प्रभु-भक्तों का तन एवं मन निरुत्साहित हो जाते हैं भाव मृत समान हो जाते है।
मेरे प्राणों के आधार प्रिय प्रभु ! कृपा कर मुझे अपने साथ मिला लो, ताकि संतों की सभा में मिलकर मैं आपकी महिमा-स्तुति कर सकूँ।
नानक के स्वामी ! मुझ पर कृपा करो, ताकि आपके भक्त नानक का मन एवं तन आपके ही स्वरूप में समा जाए ॥ १॥
डखणा ॥
ईश्वर को सभी स्थानों पर सुन्दरता से व्याप्त देखा जाता है; उस प्रभु के अतिरिक्त अन्य कोई कहीं भी दिखाई नहीं देता।
हे नानक, सच्चे गुरु से मिलकर द्वार खुल जाते हैं। ||१||
छंद॥
हे संतों के आधार प्रभु ! हे अनंत भगवान! आपके वचन बहुत सुन्दर एवं अपार हैं। संतों ने आपकी स्तुति के दिव्य शब्दों पर विचार किया है।
प्रत्येक श्वास-श्वास एवं भोजन के ग्रास के साथ प्रभु के नाम का सिमरन करते हुए, संतों की आस्था दृढ़ हो जाती है कि प्रभु का नाम मन से कदाचित् विस्मृत नहीं होना चाहिए।
हे अनंत गुणों वाले प्रभु ! हे इस जीवन के प्राण आधार, आपको एक क्षण भर के लिए भी क्यों विस्मृत किया जाए? हमें आपको एक क्षण के लिए भी नहीं भूलना चाहिए।
प्रभु मनोवांछित फल प्रदान करते हैं और यह सभी जीवों के मन की पीड़ा को जानते हैं ।
हे अनाथों के नाथ प्रभु ! आप हमेशा समस्त जीवों के साथ रहते हैं। आपका प्रेमपूर्वक नाम-स्मरण करने से मनुष्य अपने जीवन के खेल की बाजी कभी नहीं हारता ।
श्री नानक प्रभु के समक्ष यही प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! मुझ पर अपनी कृपा करें और इस विकाररूपी भवसागर से मुझे पार कर दीजिए ॥२ ॥
डखणा ॥
हे नानक ! संतों की चरण-धूलि में वही व्यक्ति स्नान करता है, जिस पर मालिक-प्रभु कृपालु होता है।
हे नानक! जिन्हें हरि-नाम रूपी धन मिल जाता है, समझ लो उन्हें सभी पदार्थ मिल गए हैं जिनकी उन्हें अपने जीवन काल में अभिलाषा होती थी ॥ १॥
छंद॥
जगत् के स्वामी प्रभु का निष्कलंक नाम भक्तों के मन का विश्राम-स्थल है। प्रभु के भक्त उसकी अनुभूति की अभिलाषा में जीते हैं।
प्रभु का नाम स्मरण करते हुए भक्त अपने मन एवं तन द्वारा उसके नाम में मग्न रहते हैं। वे हरि-रस का पान करते हैं और आनन्द प्राप्त करते हैं।