भिन्न-भिन्न प्रकार के यत्न करने पर भी यह मन प्रभु प्रेम से वंचित ही रह जाता है और मन अगर कोरा रह जाए तो उस पर प्रभु नाम का रंग नहीं चढ़ता।
झूठ एवं छल-कपट का प्रयोग करके कोई भी प्राणी परमेश्वर को नहीं पा सकता। प्राणी जैसे बीज बोता है वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है॥ ३॥
हे पारब्रह्म ! इस जगत् के समस्त प्राणी तुम्हारे ही हैं, उन जीवों की समस्त पूँजी तुम ही हो और तुम्हीं से उनकी आशा-उम्मीद हैं।
तेरी शरण में आने वाला प्राणी कदापि खाली हाथ नहीं जाता, तुम कृपालु एवं दयालु हो। तेरे दर में आने वाला गुरमुख प्रशस्ति का अधिकारी बन जाता है।
गुरु जी वचन करते हैं कि हे परमेश्वर ! मेरी सादर विनती है कि मनुष्य पापों के भयानक समुद्र के भीतर डूब रहे हैं, इनकी रक्षा करो। हे प्रभु ! जगत् के जीवों को भवसागर में डूबने से बचा लो॥ ४॥ १॥ ६५॥
श्रीरागु महला ੪ ॥
भगवान का नाम मिलने से मन तृप्त हो जाता है लेकिन नामविहीन मनुष्य का जीवन धिक्कार योग्य है।
गुरु जी कहते हैं कि यदि गुरु का अनुयायी या गुरु का प्यारा मिल जाए तो वह मुझे गुणनिधान ईश्वर के बारे में ज्ञान प्रदान करे।
मैं अपने आप को ऐसे नाम का ज्ञान देने वाले पर के स्वयं को बलिदान कर दूंगा।
हे मेरे प्रियतम प्रभु! नाम-सिमरन से ही मेरा यह समूचा जीवन है।
नाम के बिना मनुष्य जीवन व्यर्थ है। इसलिए हे मेरे सतगुरु ! मुझ पर प्रभु के नाम का रहस्य दृढ़ करवा दो॥ १॥ रहाउ॥
भगवान का नाम अमूल्य रत्न है, जो सतगुरु के पास विद्यमान है।
सतगुरु वह उज्ज्वल नाम रूपी रत्न निकाल कर प्रकाशमान कर देते है, जो उनकी श्रद्धापूर्वक सेवा करता है।
भाग्यवानों में भी सौभाग्यशाली वे धन्य हैं, जो गुरु के पास आकर उनसे मिलते हैं और नाम रूपी उस खजाने को प्राप्त कर लेते हैं ॥२॥
जो प्राणी सतगुरु महापुरुष के मिलन से वंचित हैं, वे भाग्यहीन काल (मृत्यु) के अधीन हैं।
ऐसे प्राणी पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्कर में पड़कर विभिन्न योनियों में भटकते रहते हैं। ऐसे प्राणी मलिनता के भयानक कीट बने पड़े हैं।
जिन अहंकारी और आत्मकेन्द्रित लोगों के हृदय में क्रोध भरा है, उनसे न तो मिलें और न ही उनके पास जाएँ।
महापुरुष सतगुरु अमृत के सरोवर हैं, जहाँ पर भाग्यशाली इसमें आकर स्नान करते हैं। अर्थात् उनकी कृपा-दृष्टि से कृपा-पात्र बनते हैं।
उनकी जन्म-जन्मांतर की मलिनता धुल जाती है और उनके भीतर पवित्र नाम सुदृढ़ हो जाता है।
गुरु जी कहते हैं कि हे नानक ! सतगुरु की ओर सुरति लगाने से (गुरु-भक्तों को) परम पद की प्राप्ति होती हे॥ ४॥ २॥ ६६॥
श्रीरागु महला ੪ ॥
हे मेरी माता! मैं तो उस पारब्रह्म का ही यश गान करता हूँ. उसकी प्रशंसा में प्रत्यक्ष करता हूँ और उनके गुणों की व्याख्या करता हूँ।
प्रभु प्रेमी गुरमुख परोपकारी एवं गुणों के भण्डार हैं, उनसे मिलकर मैं पारब्रह्म का यश-कीर्ति का गुणगान करता हूँ।
गुरु रूपी रत्न से मिलकर मेरा हृदय बंध गया है और हरिनाम से गहन लाल वर्ण रंग गया है॥ १॥
हे मेरे गोविन्द ! तेरा गुण-गान करने से मेरा मन तृप्त हो गया है।
मेरे हृदय के भीतर तेरे नाम की तृष्णा है। परमात्मा कृपा-दृष्टि करे तो गुरु जी हर्षित होकर वह नाम (प्रभु) मुझे प्रदान करें ॥ १॥ रहाउ॥
हे प्राणी ! अपने हृदय को प्रभु के प्रेम से रंग लो । हे सौभाग्यशालियो ! गुरु जी आपकी सेवा भावना से प्रसन्न होकर आपको अपना आशीर्वाद प्रदान करेंगे।
मैं उस सतगुरु पर बलिहार जाता हूँ, जो मेरे भीतर हरि नाम को प्रीत से दृढ़ करते हैं।
सतगुरु के बिना अकालपुरुष का नाम प्राप्त नहीं होता। चाहे प्राणी लाखों करोड़ों कर्मकाण्ड संस्कार इत्यादि करता रहे, उसे ईश्वर प्राप्त नहीं होता ॥ २॥
बिना सच्चा गुरु प्राप्त नहीं होता चाहे वह गृह में सदा इसके निकट एवं पास ही बैठा है।
मनुष्य के भीतर मूर्खता एवं संदेह की पीड़ा ने वास किया हुआ है। मनुष्य एवं परमात्मा के बीच अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है। जब अज्ञान निवृत्त हो तो ज्ञान के उजाले से मनुष्य एवं परमात्मा के बीच का पर्दा निवृत्त हो जाता है।
सच्चे गुरु की शरण और उपदेश मनन के बिना, कोई शुद्ध (सोना) नहीं बनता। बल्कि नाव रूपी गुरु के पास होने पर भी लोहे की तरह डूब जाता है अर्थात् धर्मत्यागी विकारों में बह जाता है।
सतगुरु जी हरि-नाम रूपी जहाज है, किस प्रकार उस पर सवार हुआ जा सकता है ?
गुरु जी कथन करते हैं कि जो सतगुरु की आज्ञानुसार चलता है, वह हरि नाम रूपी जहाज में बैठ जाता है।
हे नानक ! वे व्यक्ति धन्य-धन्य एवं भाग्यवान हैं जिनको सतगुरु जी अपने साथ मिला कर परमात्मा से मिलन करवाते हैं॥ ४ ॥ ३॥ ६७ ॥