श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 17


ਹੁਕਮੁ ਸੋਈ ਤੁਧੁ ਭਾਵਸੀ ਹੋਰੁ ਆਖਣੁ ਬਹੁਤੁ ਅਪਾਰੁ ॥
हुकमु सोई तुधु भावसी होरु आखणु बहुतु अपारु ॥

हे अनंत परमेश्वर ! तुम्हारी रज़ा से सांसारिक क्रिया हेतु आदेश होता है, अन्य निरर्थक बातों का करना निष्फल है।

ਨਾਨਕ ਸਚਾ ਪਾਤਿਸਾਹੁ ਪੂਛਿ ਨ ਕਰੇ ਬੀਚਾਰੁ ॥੪॥
नानक सचा पातिसाहु पूछि न करे बीचारु ॥४॥

सतगुरु जी का कथन है कि यह सत्य स्वरुप अकाल पुरुष किसी अन्य से पूछ कर विचार नहीं करता अर्थात् वह स्वतंत्र शक्ति है ॥ ॥४॥

ਬਾਬਾ ਹੋਰੁ ਸਉਣਾ ਖੁਸੀ ਖੁਆਰੁ ॥
बाबा होरु सउणा खुसी खुआरु ॥

हे पिता जी ! अन्य भोग-विलास की निद्रा से मानव आंतरिक प्रसन्नता अर्थात् प्रभु प्राप्ति के सुख से वंचित रह जाता है।

ਜਿਤੁ ਸੁਤੈ ਤਨੁ ਪੀੜੀਐ ਮਨ ਮਹਿ ਚਲਹਿ ਵਿਕਾਰ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥੪॥੭॥
जितु सुतै तनु पीड़ीऐ मन महि चलहि विकार ॥१॥ रहाउ ॥४॥७॥

जिस सोने से तन को पीड़ा हो और मन में विकारों की उत्पत्ति हो, ऐसी निद्रा लेना व्यर्थ है ॥१॥ रहाउ ॥४॥७॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥

सिरीरागु महला १ ॥

ਕੁੰਗੂ ਕੀ ਕਾਂਇਆ ਰਤਨਾ ਕੀ ਲਲਿਤਾ ਅਗਰਿ ਵਾਸੁ ਤਨਿ ਸਾਸੁ ॥
कुंगू की कांइआ रतना की ललिता अगरि वासु तनि सासु ॥

शुभ कर्म करने से शरीर केसर के समान पवित्र है, वैरागमयी वचन बोलने से जिह्वा रत्न समान है तथा निरंकार का यशोगान करने से शरीर में विद्यमान श्वास चंदन की सुगन्ध के समान हैं।

ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਕਾ ਮੁਖਿ ਟਿਕਾ ਤਿਤੁ ਘਟਿ ਮਤਿ ਵਿਗਾਸੁ ॥
अठसठि तीरथ का मुखि टिका तितु घटि मति विगासु ॥

परमेश्वर का यशोगान करने से अठसठ तीर्थों के स्नान-फल का तिलक मस्तिष्क पर शोभायमान होता है तथा ऐसे संतों की बुद्धि में प्रकाश होता है।

ਓਤੁ ਮਤੀ ਸਾਲਾਹਣਾ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਗੁਣਤਾਸੁ ॥੧॥
ओतु मती सालाहणा सचु नामु गुणतासु ॥१॥

फिर तो उस प्रकाशमान बुद्धि द्वारा परमेश्वर के गुणों की प्रशंसा की जाए॥ १॥

ਬਾਬਾ ਹੋਰ ਮਤਿ ਹੋਰ ਹੋਰ ॥
बाबा होर मति होर होर ॥

हे मानव जीव ! परमेश्वर के ज्ञान के बिना अन्य सांसारिक विकारों में लिप्त बुद्धि व्यर्थ है।

ਜੇ ਸਉ ਵੇਰ ਕਮਾਈਐ ਕੂੜੈ ਕੂੜਾ ਜੋਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
जे सउ वेर कमाईऐ कूड़ै कूड़ा जोरु ॥१॥ रहाउ ॥

यदि सौ बार लुभावने पदार्थों को अर्जित किया जाए, तो वे मिथ्या पदार्थ व उनका बल मिथ्या है ॥१॥ रहाउ ॥

ਪੂਜ ਲਗੈ ਪੀਰੁ ਆਖੀਐ ਸਭੁ ਮਿਲੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
पूज लगै पीरु आखीऐ सभु मिलै संसारु ॥

अन्य ज्ञान-बल से पूजा होने लगे, लोग पीर-पीर कहने लगें तथा सम्पूर्ण सृष्टि मिलकर उसके सम्मुख हो जाए।

ਨਾਉ ਸਦਾਏ ਆਪਣਾ ਹੋਵੈ ਸਿਧੁ ਸੁਮਾਰੁ ॥
नाउ सदाए आपणा होवै सिधु सुमारु ॥

अपना नाम भी कहलाए तथा पुनः सिद्धों में भी गिना जाए।

ਜਾ ਪਤਿ ਲੇਖੈ ਨਾ ਪਵੈ ਸਭਾ ਪੂਜ ਖੁਆਰੁ ॥੨॥
जा पति लेखै ना पवै सभा पूज खुआरु ॥२॥

किन्तु यदि अकाल पुरुष के दरबार में उसकी प्रतिष्ठा स्वीकृत न हो तो उसकी यह सब पूजादि उसे ख्वार (अप्रसन्न) करती है ॥ २॥

ਜਿਨ ਕਉ ਸਤਿਗੁਰਿ ਥਾਪਿਆ ਤਿਨ ਮੇਟਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਇ ॥
जिन कउ सतिगुरि थापिआ तिन मेटि न सकै कोइ ॥

जिनको सतगुरु ने उच्च पद पर आसीन किया है, उन्हें कोई भी नष्ट नहीं कर सकता।

ਓਨਾ ਅੰਦਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਨਾਮੋ ਪਰਗਟੁ ਹੋਇ ॥
ओना अंदरि नामु निधानु है नामो परगटु होइ ॥

क्योंकि उनके अंतर्मन में वाहेगुरु नाम का खजाना है और नाम के कारण ही संसार में उनका अस्तित्व है।

ਨਾਉ ਪੂਜੀਐ ਨਾਉ ਮੰਨੀਐ ਅਖੰਡੁ ਸਦਾ ਸਚੁ ਸੋਇ ॥੩॥
नाउ पूजीऐ नाउ मंनीऐ अखंडु सदा सचु सोइ ॥३॥

जो सत्य स्वरूप, त्रैकालाबाध, भेद रहित निरंकार है उसके नाम के कारण ही (परमात्मा द्वारा प्रतिष्ठित व्यक्ति) वे पूजनीय व मानने योग्य होते हैं। ॥ ३॥

ਖੇਹੂ ਖੇਹ ਰਲਾਈਐ ਤਾ ਜੀਉ ਕੇਹਾ ਹੋਇ ॥
खेहू खेह रलाईऐ ता जीउ केहा होइ ॥

जब मानव शरीर (मृत्यु के पश्चात्) धूल में मिल जाता है तब जीवात्मा की दशा कैसी होगी।

ਜਲੀਆ ਸਭਿ ਸਿਆਣਪਾ ਉਠੀ ਚਲਿਆ ਰੋਇ ॥
जलीआ सभि सिआणपा उठी चलिआ रोइ ॥

फिर उसकी सभी चतुराई जल जाती हैं और वह विलाप करता हुआ यमदूतों के साथ उठ कर चला जाता है।

ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਵਿਸਾਰਿਐ ਦਰਿ ਗਇਆ ਕਿਆ ਹੋਇ ॥੪॥੮॥
नानक नामि विसारिऐ दरि गइआ किआ होइ ॥४॥८॥

सतगुरु जी कथन करते हैं कि वाहेगुरु का नाम विस्मृत करके यमों के द्वार पर जाने से क्या होता है ॥४॥८॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥

सिरीरागु महला १ ॥

ਗੁਣਵੰਤੀ ਗੁਣ ਵੀਥਰੈ ਅਉਗੁਣਵੰਤੀ ਝੂਰਿ ॥
गुणवंती गुण वीथरै अउगुणवंती झूरि ॥

हे मानव ! जो शुभ गुणों से युक्त संत रूप गुणवती (जीवात्मा) है, वह अकाल पुरख के गुणों का विस्तार करती है और जो अवगुणों से युक्त मनमुख रूप गुणहीन है, वह पश्चाताप करती है।

ਜੇ ਲੋੜਹਿ ਵਰੁ ਕਾਮਣੀ ਨਹ ਮਿਲੀਐ ਪਿਰ ਕੂਰਿ ॥
जे लोड़हि वरु कामणी नह मिलीऐ पिर कूरि ॥

इसलिए यदि जीव रूपी स्त्री पति-परमेश्वर को मिलना चाहती हो तो उसे हृदय में सत्य को धारण करना होगा, क्योंकि झूठ के आश्रय से पति-परमेश्वर प्राप्त नहीं होता।

ਨਾ ਬੇੜੀ ਨਾ ਤੁਲਹੜਾ ਨਾ ਪਾਈਐ ਪਿਰੁ ਦੂਰਿ ॥੧॥
ना बेड़ी ना तुलहड़ा ना पाईऐ पिरु दूरि ॥१॥

उस जीव-स्त्री के पास तृष्णा रूपी नदी पार करने हेतु न तो भक्ति-भाव की नाव है और न ही प्रेम-भाव का तुल्हा (रस्सों से बांध कर काष्ठ का बनाया हुआ तख्ता) है, इन साधनों के बिना तो वह परमात्मा इतना दूर है कि उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं ॥१॥

ਮੇਰੇ ਠਾਕੁਰ ਪੂਰੈ ਤਖਤਿ ਅਡੋਲੁ ॥
मेरे ठाकुर पूरै तखति अडोलु ॥

मेरा निरंकार सर्व-सम्पन्न है और अचल सिंहासन पर विराजमान है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਪੂਰਾ ਜੇ ਕਰੇ ਪਾਈਐ ਸਾਚੁ ਅਤੋਲੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
गुरमुखि पूरा जे करे पाईऐ साचु अतोलु ॥१॥ रहाउ ॥

यदि कोई गुरु के उन्मुख होने वाला सद्पुरुष कृपा करे तो अपरिमेय व सत्य स्वरूप परमेश्वर किसी साधक को प्राप्त हो सकता है ॥ १॥ रहाउ॥

ਪ੍ਰਭੁ ਹਰਿਮੰਦਰੁ ਸੋਹਣਾ ਤਿਸੁ ਮਹਿ ਮਾਣਕ ਲਾਲ ॥
प्रभु हरिमंदरु सोहणा तिसु महि माणक लाल ॥

प्रभु परमेश्वर का महल बहुत सुन्दर है।

ਮੋਤੀ ਹੀਰਾ ਨਿਰਮਲਾ ਕੰਚਨ ਕੋਟ ਰੀਸਾਲ ॥
मोती हीरा निरमला कंचन कोट रीसाल ॥

इसके भीतर रत्न, माणिक, मोती और निर्दोष हीरे जड़े हुए हैं। इस अमृत स्रोत के चारों ओर सोने का एक किला है।

ਬਿਨੁ ਪਉੜੀ ਗੜਿ ਕਿਉ ਚੜਉ ਗੁਰ ਹਰਿ ਧਿਆਨ ਨਿਹਾਲ ॥੨॥
बिनु पउड़ी गड़ि किउ चड़उ गुर हरि धिआन निहाल ॥२॥

(यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि) इस दुर्ग पर बिना सीढ़ी के कैसे चढ़ा जाए, (सतगुरु जी उत्तर देते हैं) इस मानव देह रूपी दुर्ग पर चढ़ने हेतु, अर्थात इस मानव शरीर मुक्ति हेतु गुरु द्वारा निरंकार का चिंतन करके प्रसनचित यानि गुरु उपदेश से परमात्मा का नाम सिमरन करके मुक्ति प्राप्त कर ॥२॥

ਗੁਰੁ ਪਉੜੀ ਬੇੜੀ ਗੁਰੂ ਗੁਰੁ ਤੁਲਹਾ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥
गुरु पउड़ी बेड़ी गुरू गुरु तुलहा हरि नाउ ॥

हे मानव ! (इस दुर्ग पर चढ़ने हेतु) गुरु रूप सीढ़ी, (तृष्णा रूपी नदी पार करने हेतु) गुरु रूप नाव व गुरु रूप तुल्हा और (आवागमन से मुक्ति प्राति हेतु) गुरु द्वारा हरिनाम रूपी जहाज का सहारा लिया जा सकता है अथवा निरंकार के नाम-सिमरन की प्राप्ति के लिए गुरु-उपदेश रूपी सीढ़ी, नाव व तुल्हा को अपना आश्रय बनाओ।

ਗੁਰੁ ਸਰੁ ਸਾਗਰੁ ਬੋਹਿਥੋ ਗੁਰੁ ਤੀਰਥੁ ਦਰੀਆਉ ॥
गुरु सरु सागरु बोहिथो गुरु तीरथु दरीआउ ॥

गुरु के पास भवसागर पार करने हेतु ज्ञान रूपी जहाज़ है, और गुरु ही पाप कर्मों की निवृति हेतु तीर्थ स्थान व तन शुद्धि हेतु पवित्र दरिया है।

ਜੇ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਊਜਲੀ ਸਤ ਸਰਿ ਨਾਵਣ ਜਾਉ ॥੩॥
जे तिसु भावै ऊजली सत सरि नावण जाउ ॥३॥

यदि निरंकार को उस जीव-स्त्री का आचरण भला लगता है तो उसकी बुद्धि निर्मल होती है और वह सत्संगति रूपी सरोवर में स्नान करने जाती है। ॥ ३॥

ਪੂਰੋ ਪੂਰੋ ਆਖੀਐ ਪੂਰੈ ਤਖਤਿ ਨਿਵਾਸ ॥
पूरो पूरो आखीऐ पूरै तखति निवास ॥

वह जो परिपूर्ण निरंकार है उसकी पूर्ण श्रद्धा से उपासना करें तो उस अधिष्ठान स्वरूप अकाल पुरुष में स्थिर हुआ जा सकता है।

ਪੂਰੈ ਥਾਨਿ ਸੁਹਾਵਣੈ ਪੂਰੈ ਆਸ ਨਿਰਾਸ ॥
पूरै थानि सुहावणै पूरै आस निरास ॥

परिपूर्ण परमेश्वर को प्राप्त हुआ मानव जीव शोभायमान होकर निराश व्यक्तियों की आशाएँ पूर्ण करने के समर्थ हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਪੂਰਾ ਜੇ ਮਿਲੈ ਕਿਉ ਘਾਟੈ ਗੁਣ ਤਾਸ ॥੪॥੯॥
नानक पूरा जे मिलै किउ घाटै गुण तास ॥४॥९॥

सतगुरु जी कथन करते हैं कि वह परिपूर्ण अकाल पुरुष जिसको प्राप्त हो जाए तो उसके शुभ गुणों में कमी कैसे आ सकती है ॥४॥९ ॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ॥
सिरीरागु महला १ ॥

सिरीरागु महला १ ॥

ਆਵਹੁ ਭੈਣੇ ਗਲਿ ਮਿਲਹ ਅੰਕਿ ਸਹੇਲੜੀਆਹ ॥
आवहु भैणे गलि मिलह अंकि सहेलड़ीआह ॥

हे सत्संगी बहन ! आओ, मेरे गले मिलो, क्योंकि हम एक ही पति-परमेश्वर की सखियाँ हैं।

ਮਿਲਿ ਕੈ ਕਰਹ ਕਹਾਣੀਆ ਸੰਮ੍ਰਥ ਕੰਤ ਕੀਆਹ ॥
मिलि कै करह कहाणीआ संम्रथ कंत कीआह ॥

हम दोनों मिलकर उस सर्वशक्तिमान निरंकार पति की कीर्ति की बातें करें,

ਸਾਚੇ ਸਾਹਿਬ ਸਭਿ ਗੁਣ ਅਉਗਣ ਸਭਿ ਅਸਾਹ ॥੧॥
साचे साहिब सभि गुण अउगण सभि असाह ॥१॥

उस सत्य स्वरूप वाहेगुरु में सर्वज्ञानादि के सभी गुण हैं और हम में सभी अवगुण ही हैं।॥ १॥

ਕਰਤਾ ਸਭੁ ਕੋ ਤੇਰੈ ਜੋਰਿ ॥
करता सभु को तेरै जोरि ॥

हे कर्ता पुरुष ! सृष्टि तेरी शक्ति के कारण ही है।

ਏਕੁ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰੀਐ ਜਾ ਤੂ ਤਾ ਕਿਆ ਹੋਰਿ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
एकु सबदु बीचारीऐ जा तू ता किआ होरि ॥१॥ रहाउ ॥

जब एकमेव अद्वितीय ब्रह्म का विचार करें तो तू ही तू व्यापक हैं फिर अन्य किसी की क्या आवश्यकता है ॥ १॥ रहाउ ॥

ਜਾਇ ਪੁਛਹੁ ਸੋਹਾਗਣੀ ਤੁਸੀ ਰਾਵਿਆ ਕਿਨੀ ਗੁਣਂੀ ॥
जाइ पुछहु सोहागणी तुसी राविआ किनी गुणीं ॥

जाओ और उन प्रसन्न आत्मा-वधुओं से पूछो, "तुम कौन से सद्गुणों से अपने पतिदेव को भोगती हो?"

ਸਹਜਿ ਸੰਤੋਖਿ ਸੀਗਾਰੀਆ ਮਿਠਾ ਬੋਲਣੀ ॥
सहजि संतोखि सीगारीआ मिठा बोलणी ॥

(प्रत्युत्तर में कहा है कि) संतोष धारण करने व मधुर-वाणी के कारण स्वाभाविक ही श्रृंगारित हुई हैं।

ਪਿਰੁ ਰੀਸਾਲੂ ਤਾ ਮਿਲੈ ਜਾ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਸੁਣੀ ॥੨॥
पिरु रीसालू ता मिलै जा गुर का सबदु सुणी ॥२॥

जिज्ञासु रूपी स्त्री जब गुरु का उपदेश श्रवण-करे तब उसे सुन्दर स्वरूप अकाल पुरुष रूपी पति मिलता है।॥ २॥


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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