हे अनंत परमेश्वर ! तुम्हारी रज़ा से सांसारिक क्रिया हेतु आदेश होता है, अन्य निरर्थक बातों का करना निष्फल है।
सतगुरु जी का कथन है कि यह सत्य स्वरुप अकाल पुरुष किसी अन्य से पूछ कर विचार नहीं करता अर्थात् वह स्वतंत्र शक्ति है ॥ ॥४॥
हे पिता जी ! अन्य भोग-विलास की निद्रा से मानव आंतरिक प्रसन्नता अर्थात् प्रभु प्राप्ति के सुख से वंचित रह जाता है।
जिस सोने से तन को पीड़ा हो और मन में विकारों की उत्पत्ति हो, ऐसी निद्रा लेना व्यर्थ है ॥१॥ रहाउ ॥४॥७॥
सिरीरागु महला १ ॥
शुभ कर्म करने से शरीर केसर के समान पवित्र है, वैरागमयी वचन बोलने से जिह्वा रत्न समान है तथा निरंकार का यशोगान करने से शरीर में विद्यमान श्वास चंदन की सुगन्ध के समान हैं।
परमेश्वर का यशोगान करने से अठसठ तीर्थों के स्नान-फल का तिलक मस्तिष्क पर शोभायमान होता है तथा ऐसे संतों की बुद्धि में प्रकाश होता है।
फिर तो उस प्रकाशमान बुद्धि द्वारा परमेश्वर के गुणों की प्रशंसा की जाए॥ १॥
हे मानव जीव ! परमेश्वर के ज्ञान के बिना अन्य सांसारिक विकारों में लिप्त बुद्धि व्यर्थ है।
यदि सौ बार लुभावने पदार्थों को अर्जित किया जाए, तो वे मिथ्या पदार्थ व उनका बल मिथ्या है ॥१॥ रहाउ ॥
अन्य ज्ञान-बल से पूजा होने लगे, लोग पीर-पीर कहने लगें तथा सम्पूर्ण सृष्टि मिलकर उसके सम्मुख हो जाए।
अपना नाम भी कहलाए तथा पुनः सिद्धों में भी गिना जाए।
किन्तु यदि अकाल पुरुष के दरबार में उसकी प्रतिष्ठा स्वीकृत न हो तो उसकी यह सब पूजादि उसे ख्वार (अप्रसन्न) करती है ॥ २॥
जिनको सतगुरु ने उच्च पद पर आसीन किया है, उन्हें कोई भी नष्ट नहीं कर सकता।
क्योंकि उनके अंतर्मन में वाहेगुरु नाम का खजाना है और नाम के कारण ही संसार में उनका अस्तित्व है।
जो सत्य स्वरूप, त्रैकालाबाध, भेद रहित निरंकार है उसके नाम के कारण ही (परमात्मा द्वारा प्रतिष्ठित व्यक्ति) वे पूजनीय व मानने योग्य होते हैं। ॥ ३॥
जब मानव शरीर (मृत्यु के पश्चात्) धूल में मिल जाता है तब जीवात्मा की दशा कैसी होगी।
फिर उसकी सभी चतुराई जल जाती हैं और वह विलाप करता हुआ यमदूतों के साथ उठ कर चला जाता है।
सतगुरु जी कथन करते हैं कि वाहेगुरु का नाम विस्मृत करके यमों के द्वार पर जाने से क्या होता है ॥४॥८॥
सिरीरागु महला १ ॥
हे मानव ! जो शुभ गुणों से युक्त संत रूप गुणवती (जीवात्मा) है, वह अकाल पुरख के गुणों का विस्तार करती है और जो अवगुणों से युक्त मनमुख रूप गुणहीन है, वह पश्चाताप करती है।
इसलिए यदि जीव रूपी स्त्री पति-परमेश्वर को मिलना चाहती हो तो उसे हृदय में सत्य को धारण करना होगा, क्योंकि झूठ के आश्रय से पति-परमेश्वर प्राप्त नहीं होता।
उस जीव-स्त्री के पास तृष्णा रूपी नदी पार करने हेतु न तो भक्ति-भाव की नाव है और न ही प्रेम-भाव का तुल्हा (रस्सों से बांध कर काष्ठ का बनाया हुआ तख्ता) है, इन साधनों के बिना तो वह परमात्मा इतना दूर है कि उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं ॥१॥
मेरा निरंकार सर्व-सम्पन्न है और अचल सिंहासन पर विराजमान है।
यदि कोई गुरु के उन्मुख होने वाला सद्पुरुष कृपा करे तो अपरिमेय व सत्य स्वरूप परमेश्वर किसी साधक को प्राप्त हो सकता है ॥ १॥ रहाउ॥
प्रभु परमेश्वर का महल बहुत सुन्दर है।
इसके भीतर रत्न, माणिक, मोती और निर्दोष हीरे जड़े हुए हैं। इस अमृत स्रोत के चारों ओर सोने का एक किला है।
(यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि) इस दुर्ग पर बिना सीढ़ी के कैसे चढ़ा जाए, (सतगुरु जी उत्तर देते हैं) इस मानव देह रूपी दुर्ग पर चढ़ने हेतु, अर्थात इस मानव शरीर मुक्ति हेतु गुरु द्वारा निरंकार का चिंतन करके प्रसनचित यानि गुरु उपदेश से परमात्मा का नाम सिमरन करके मुक्ति प्राप्त कर ॥२॥
हे मानव ! (इस दुर्ग पर चढ़ने हेतु) गुरु रूप सीढ़ी, (तृष्णा रूपी नदी पार करने हेतु) गुरु रूप नाव व गुरु रूप तुल्हा और (आवागमन से मुक्ति प्राति हेतु) गुरु द्वारा हरिनाम रूपी जहाज का सहारा लिया जा सकता है अथवा निरंकार के नाम-सिमरन की प्राप्ति के लिए गुरु-उपदेश रूपी सीढ़ी, नाव व तुल्हा को अपना आश्रय बनाओ।
गुरु के पास भवसागर पार करने हेतु ज्ञान रूपी जहाज़ है, और गुरु ही पाप कर्मों की निवृति हेतु तीर्थ स्थान व तन शुद्धि हेतु पवित्र दरिया है।
यदि निरंकार को उस जीव-स्त्री का आचरण भला लगता है तो उसकी बुद्धि निर्मल होती है और वह सत्संगति रूपी सरोवर में स्नान करने जाती है। ॥ ३॥
वह जो परिपूर्ण निरंकार है उसकी पूर्ण श्रद्धा से उपासना करें तो उस अधिष्ठान स्वरूप अकाल पुरुष में स्थिर हुआ जा सकता है।
परिपूर्ण परमेश्वर को प्राप्त हुआ मानव जीव शोभायमान होकर निराश व्यक्तियों की आशाएँ पूर्ण करने के समर्थ हो जाता है।
सतगुरु जी कथन करते हैं कि वह परिपूर्ण अकाल पुरुष जिसको प्राप्त हो जाए तो उसके शुभ गुणों में कमी कैसे आ सकती है ॥४॥९ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
हे सत्संगी बहन ! आओ, मेरे गले मिलो, क्योंकि हम एक ही पति-परमेश्वर की सखियाँ हैं।
हम दोनों मिलकर उस सर्वशक्तिमान निरंकार पति की कीर्ति की बातें करें,
उस सत्य स्वरूप वाहेगुरु में सर्वज्ञानादि के सभी गुण हैं और हम में सभी अवगुण ही हैं।॥ १॥
हे कर्ता पुरुष ! सृष्टि तेरी शक्ति के कारण ही है।
जब एकमेव अद्वितीय ब्रह्म का विचार करें तो तू ही तू व्यापक हैं फिर अन्य किसी की क्या आवश्यकता है ॥ १॥ रहाउ ॥
जाओ और उन प्रसन्न आत्मा-वधुओं से पूछो, "तुम कौन से सद्गुणों से अपने पतिदेव को भोगती हो?"
(प्रत्युत्तर में कहा है कि) संतोष धारण करने व मधुर-वाणी के कारण स्वाभाविक ही श्रृंगारित हुई हैं।
जिज्ञासु रूपी स्त्री जब गुरु का उपदेश श्रवण-करे तब उसे सुन्दर स्वरूप अकाल पुरुष रूपी पति मिलता है।॥ २॥