श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 2


ਗਾਵੈ ਕੋ ਵੇਖੈ ਹਾਦਰਾ ਹਦੂਰਿ ॥
गावै को वेखै हादरा हदूरि ॥

कोई उसे अपने अंग-संग जानकर उसकी महिमा गाता है।

ਕਥਨਾ ਕਥੀ ਨ ਆਵੈ ਤੋਟਿ ॥
कथना कथी न आवै तोटि ॥

अनेकानेक ने उसकी कीर्ति का कथन किया है किन्तु फिर भी अन्त नहीं हुआ।

ਕਥਿ ਕਥਿ ਕਥੀ ਕੋਟੀ ਕੋਟਿ ਕੋਟਿ ॥
कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥

करोड़ों जीवों ने उसके गुणों का कथन किया है, फिर भी उसका वास्तविक स्वरूप पाया नहीं जा सका।

ਦੇਦਾ ਦੇ ਲੈਦੇ ਥਕਿ ਪਾਹਿ ॥
देदा दे लैदे थकि पाहि ॥

अकाल पुरख दाता बनकर वह जीव को भौतिक पदार्थ (अथक) देता ही जा रहा है, (परंतु) जीव लेते हुए थक जाता है।

ਜੁਗਾ ਜੁਗੰਤਰਿ ਖਾਹੀ ਖਾਹਿ ॥
जुगा जुगंतरि खाही खाहि ॥

समस्त जीव युगों-युगों से इन पदार्थों का भोग करते आ रहे हैं।

ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਚਲਾਏ ਰਾਹੁ ॥
हुकमी हुकमु चलाए राहु ॥

आदेश करने वाले निरंकार की इच्छा से ही (सम्पूर्ण सृष्टि के) मार्ग चल रहे हैं।

ਨਾਨਕ ਵਿਗਸੈ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ॥੩॥
नानक विगसै वेपरवाहु ॥३॥

श्री गुरु नानक देव जी सृष्टि के जीवों को सचेत करते हुए कहते हैं कि वह निरंकार (वाहेगुरु) चिंता रहित होकर (इस संसार के जीवों पर) सदैव प्रसन्न रहता है॥ ३॥

ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚੁ ਨਾਇ ਭਾਖਿਆ ਭਾਉ ਅਪਾਰੁ ॥
साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु ॥

वह अकाल पुरख (निरंकार) अपने सत्य नाम के साथ स्वयं भी सत्य है, उस (सत्य एवं सत्य नाम वाले) को प्रेम करने वाले ही अनंत कहते हैं।

ਆਖਹਿ ਮੰਗਹਿ ਦੇਹਿ ਦੇਹਿ ਦਾਤਿ ਕਰੇ ਦਾਤਾਰੁ ॥
आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारु ॥

(समस्त देव, दैत्य, मनुष्य तथा पशु इत्यादि) जीव कहते रहते हैं, माँगते रहते हैं, (भौतिक पदार्थ) दे दे करते हैं, वह दाता (परमात्मा) सभी को देता ही रहता है।

ਫੇਰਿ ਕਿ ਅਗੈ ਰਖੀਐ ਜਿਤੁ ਦਿਸੈ ਦਰਬਾਰੁ ॥
फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु ॥

अब प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि (जैसे अन्य राजा - महाराजाओं के समक्ष कुछ भेंट लेकर जाते हैं वैसे ही) उस परिपूर्ण परमात्मा के समक्ष क्या भेंट ले जाई जाए कि उसका द्वार सरलता से दिखाई दे जाए ?

ਮੁਹੌ ਕਿ ਬੋਲਣੁ ਬੋਲੀਐ ਜਿਤੁ ਸੁਣਿ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ ॥
मुहौ कि बोलणु बोलीऐ जितु सुणि धरे पिआरु ॥

जीभा से उसका गुणगान किस प्रकार का करें कि उस गुणगान को सुनकर वह अनंत शक्ति (ईश्वर) हमें प्रेम-प्रसाद प्रदान करे ?

ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਵੇਲਾ ਸਚੁ ਨਾਉ ਵਡਿਆਈ ਵੀਚਾਰੁ ॥
अंम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥

इनका उत्तर गुरु महाराज स्पष्ट करते हैं कि प्रभात काल (अमृत वेला) में (जिस समय व्यक्ति का मन आम तौर पर सांसारिक उलझनों से विरक्त होता है) उस सत्य नाम वाले अकाल पुरख का नाम-स्मरण करें और उसकी महिमा का गान करें, तभी उसका प्रेम प्राप्त कर सकते हैं।

ਕਰਮੀ ਆਵੈ ਕਪੜਾ ਨਦਰੀ ਮੋਖੁ ਦੁਆਰੁ ॥
करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरु ॥

(इससे यदि उसकी कृपा हो जाए तो) गुरु जी बताते हैं कि कर्म मात्र से जीव को यह शरीर रूपी वस्त्र अर्थात् मानव जन्म प्राप्त होता है, इससे मुक्ति नहीं मिलती, मोक्ष प्राप्त करने के लिए उसकी कृपामयी दृष्टि चाहिए।

ਨਾਨਕ ਏਵੈ ਜਾਣੀਐ ਸਭੁ ਆਪੇ ਸਚਿਆਰੁ ॥੪॥
नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरु ॥४॥

हे नानक ! इस प्रकार का बोध ग्रहण करो कि वह सत्य स्वरूप निरंकार ही सर्वस्व है इससे मनुष्य के समस्त सन्देह मिट जाएँगे॥ ४ ॥

ਥਾਪਿਆ ਨ ਜਾਇ ਕੀਤਾ ਨ ਹੋਇ ॥
थापिआ न जाइ कीता न होइ ॥

वह परमात्मा किसी के द्वारा मूर्त रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता, न ही उसे बनाया जा सकता है।

ਆਪੇ ਆਪਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਸੋਇ ॥
आपे आपि निरंजनु सोइ ॥

वह मायातीत होकर स्वयं से ही प्रकाशमान है।

ਜਿਨਿ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਪਾਇਆ ਮਾਨੁ ॥
जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु ॥

जिस मानव ने उस ईश्वर का नाम-स्मरण किया है, उसी ने उसके दरबार में सम्मान प्राप्त किया है।

ਨਾਨਕ ਗਾਵੀਐ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ ॥
नानक गावीऐ गुणी निधानु ॥

गुरु नानक देव जी का कथन है कि उस गुणों के भण्डार निरंकार की अराधना करनी चाहिए।

ਗਾਵੀਐ ਸੁਣੀਐ ਮਨਿ ਰਖੀਐ ਭਾਉ ॥
गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ ॥

उसका गुणगान करते हुए, प्रशंसा सुनते हुए अपने हृदय में उसके प्रति श्रद्धा धारण करें।

ਦੁਖੁ ਪਰਹਰਿ ਸੁਖੁ ਘਰਿ ਲੈ ਜਾਇ ॥
दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ ॥

ऐसा करने से दुःखों का नाश होकर घर में सुखों का वास हो जाता है।

ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਦੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੇਦੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ ॥
गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं गुरमुखि रहिआ समाई ॥

गुरु के मुँह से निकला हुआ शब्द ही वेदों का ज्ञान है, वही उपदेश रूपी ज्ञान सभी जगह विद्यमान है।

ਗੁਰੁ ਈਸਰੁ ਗੁਰੁ ਗੋਰਖੁ ਬਰਮਾ ਗੁਰੁ ਪਾਰਬਤੀ ਮਾਈ ॥
गुरु ईसरु गुरु गोरखु बरमा गुरु पारबती माई ॥

गुरु ही शिव, विष्णु, ब्रह्मा और माता पार्वती है, क्योंकि गुरु परम शक्ति हैं।

ਜੇ ਹਉ ਜਾਣਾ ਆਖਾ ਨਾਹੀ ਕਹਣਾ ਕਥਨੁ ਨ ਜਾਈ ॥
जे हउ जाणा आखा नाही कहणा कथनु न जाई ॥

श्री गुरु नानक देव जी का कथन है कि उस सर्गुण स्वरूप परम पिता परमेश्वर को अपनी वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी महिमा अपरम्पार है उसका वर्णन हमारी सुक्ष्म बुद्धि द्वारा नहीं किया जा सकता।।

ਗੁਰਾ ਇਕ ਦੇਹਿ ਬੁਝਾਈ ॥
गुरा इक देहि बुझाई ॥

हे गुरु जी ! मुझे केवल यही बोध करवा दो कि

ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਕਾ ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸੋ ਮੈ ਵਿਸਰਿ ਨ ਜਾਈ ॥੫॥
सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥५॥

समस्त जीवों का जो एकमात्र दाता है, मैं कभी भी उसे भूल न पाऊँ ॥ ५॥

ਤੀਰਥਿ ਨਾਵਾ ਜੇ ਤਿਸੁ ਭਾਵਾ ਵਿਣੁ ਭਾਣੇ ਕਿ ਨਾਇ ਕਰੀ ॥
तीरथि नावा जे तिसु भावा विणु भाणे कि नाइ करी ॥

तीर्थ-स्नान भी तभी किया जा सकता है यदि ऐसा करना उसे स्वीकार हो, उस अकाल पुरख की इच्छा के बिना मैं तीर्थ-स्नान करके क्या करूँगा, क्योंकि फिर तो यह सब अर्थहीन ही होगा।

ਜੇਤੀ ਸਿਰਠਿ ਉਪਾਈ ਵੇਖਾ ਵਿਣੁ ਕਰਮਾ ਕਿ ਮਿਲੈ ਲਈ ॥
जेती सिरठि उपाई वेखा विणु करमा कि मिलै लई ॥

उस रचयिता की पैदा की हुई जितनी भी सृष्टि मैं देखता हूँ, उसमें कर्मों के बिना न कोई जीव कुछ प्राप्त करता है और न ही उसे कुछ मिलता है।

ਮਤਿ ਵਿਚਿ ਰਤਨ ਜਵਾਹਰ ਮਾਣਿਕ ਜੇ ਇਕ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣੀ ॥
मति विचि रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी ॥

यदि गुरु से प्राप्त ज्ञान को हम अपने जीवन में धारण कर ले तो हमारी बुद्धि हीरे-जवाहरात जैसे पद्धार्थों से परिपूर्ण हो जाए भाव हीरे माणिक्य जैसे शोभनीय पद्धार्थों सा हमारा जीवन भी शोभनीय हो जाए।

ਗੁਰਾ ਇਕ ਦੇਹਿ ਬੁਝਾਈ ॥
गुरा इक देहि बुझाई ॥

हे गुरु जी ! मुझे केवल यही बोध करवा दो कि

ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਕਾ ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸੋ ਮੈ ਵਿਸਰਿ ਨ ਜਾਈ ॥੬॥
सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥६॥

सृष्टि के समस्त प्राणियों को देने वाला निरंकार मुझ से विस्मृत न हो ॥ ६ ॥

ਜੇ ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਆਰਜਾ ਹੋਰ ਦਸੂਣੀ ਹੋਇ ॥
जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ ॥

यदि किसी मनुष्य अथवा योगी की योग-साधना करके चार युगों से दस गुणा अधिक, अर्थात्-चालीस युगों की आयु हो जाए।

ਨਵਾ ਖੰਡਾ ਵਿਚਿ ਜਾਣੀਐ ਨਾਲਿ ਚਲੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
नवा खंडा विचि जाणीऐ नालि चलै सभु कोइ ॥

नवखण्डों (पौराणिक धर्म-ग्रन्थों में वर्णित इलावर्त, किंपुरुष, भद्र, भरत, केतुमाल, हरि, हिरण्य, रम्यक और कुरु) में उसकी कीर्ति हो, सभी उसके सम्मान में साथ चलें।

ਚੰਗਾ ਨਾਉ ਰਖਾਇ ਕੈ ਜਸੁ ਕੀਰਤਿ ਜਗਿ ਲੇਇ ॥
चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ ॥

संसार में प्रख्यात पुरुष बनकर अपनी शोभा का गान करवाता रहे।

ਜੇ ਤਿਸੁ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਈ ਤ ਵਾਤ ਨ ਪੁਛੈ ਕੇ ॥
जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के ॥

यदि अकाल पुरख की कृपादृष्टि में वह मनुष्य नहीं आया तो किसी ने भी उसकी क्षेम नहीं पूछनी।

ਕੀਟਾ ਅੰਦਰਿ ਕੀਟੁ ਕਰਿ ਦੋਸੀ ਦੋਸੁ ਧਰੇ ॥
कीटा अंदरि कीटु करि दोसी दोसु धरे ॥

इतने वैभव तथा मान-सम्मान होने के पश्चात् भी ऐसा मनुष्य परमात्मा के समक्ष कीटों में क्षुद्र कीट अर्थात् अत्यंत अधम समझा जाता है, दोषयुक्त मनुष्य भी उसे दोषी समझेंगे

ਨਾਨਕ ਨਿਰਗੁਣਿ ਗੁਣੁ ਕਰੇ ਗੁਣਵੰਤਿਆ ਗੁਣੁ ਦੇ ॥
नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे ॥

गुरु नानक जी का कथन है कि वह असीम-शक्ति निरंकार गुणहीन मनुष्यों को गुण प्रदान करता है और गुणी मनुष्यों को अतिरिक्त गुणवान बनाता है।

ਤੇਹਾ ਕੋਇ ਨ ਸੁਝਈ ਜਿ ਤਿਸੁ ਗੁਣੁ ਕੋਇ ਕਰੇ ॥੭॥
तेहा कोइ न सुझई जि तिसु गुणु कोइ करे ॥७॥

परंतु ऐसा कोई और दिखाई नहीं देता, जो उस गुणों से परिपूर्ण परमात्मा को कोई गुण प्रदान कर सके II ७ II

ਸੁਣਿਐ ਸਿਧ ਪੀਰ ਸੁਰਿ ਨਾਥ ॥
सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥

परमात्मा का नाम सुनने, अर्थात्-उसकी कीर्ति में अपने हृदय को लगाने के कारण ही सिद्ध, पीर, देव तथा नाथ इत्यादि को परम-पद की प्राप्ति हुई है।

ਸੁਣਿਐ ਧਰਤਿ ਧਵਲ ਆਕਾਸ ॥
सुणिऐ धरति धवल आकास ॥

नाम सुनने से ही पृथ्वी, उसको धारण करने वाले वृषभ (पौराणिक धर्म ग्रन्थों के अनुसार जो धौला बैल इस भू-लोक को अपने सीगों पर टिकाए हुए है) तथा आकाश के स्थायित्व की शक्ति का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

ਸੁਣਿਐ ਦੀਪ ਲੋਅ ਪਾਤਾਲ ॥
सुणिऐ दीप लोअ पाताल ॥

नाम सुनने से शाल्मलि, क्रौंच, जम्बू, पलक आदि सप्त द्वीप, भूः, भवः, स्वः आदि चौदह लोक तथा अतल, वितल, सुतल आदि सातों पातालों की व्यापकता प्राप्त होती है।

ਸੁਣਿਐ ਪੋਹਿ ਨ ਸਕੈ ਕਾਲੁ ॥
सुणिऐ पोहि न सकै कालु ॥

नाम सुनने वाले को काल स्पर्श भी नहीं कर सकता।

ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥

हे नानक ! संत जनों के हृदय में सदैव आनंद का प्रकाश रहता है।

ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ ॥੮॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥८॥

परमात्मा का नाम सुनने से समस्त दुःखों व दुष्कर्मों का नाश होता है॥ ८॥

ਸੁਣਿਐ ਈਸਰੁ ਬਰਮਾ ਇੰਦੁ ॥
सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ॥

परमात्मा का नाम सुनने से ही शिव, ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि उत्तम पदवी को प्राप्त कर सके हैं।

ਸੁਣਿਐ ਮੁਖਿ ਸਾਲਾਹਣ ਮੰਦੁ ॥
सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ॥

मंदे लोग यानी कि बुरे कर्म करने वाले मनुष्य भी नाम को श्रवण करने मात्र से प्रशंसा के योग्य हो जाते हैं।

ਸੁਣਿਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਤਨਿ ਭੇਦ ॥
सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद ॥

नाम के साथ जुड़ने से योगादि तथा शरीर के विशुद्ध, मणिपूरक, मूलाधार आदि षट्-चक्र के रहस्य का बोध हो जाता है।

ਸੁਣਿਐ ਸਾਸਤ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਵੇਦ ॥
सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद ॥

नाम सुनने से षट्-शास्त्र, (सांख्य, योग, न्याय आदि), सत्ताईस स्मृतियों (मनु, याज्ञवल्कय स्मृति आदि) तथा चारों वेदों का ज्ञान उपलब्ध होता है।


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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