कोई उसे अपने अंग-संग जानकर उसकी महिमा गाता है।
अनेकानेक ने उसकी कीर्ति का कथन किया है किन्तु फिर भी अन्त नहीं हुआ।
करोड़ों जीवों ने उसके गुणों का कथन किया है, फिर भी उसका वास्तविक स्वरूप पाया नहीं जा सका।
अकाल पुरख दाता बनकर वह जीव को भौतिक पदार्थ (अथक) देता ही जा रहा है, (परंतु) जीव लेते हुए थक जाता है।
समस्त जीव युगों-युगों से इन पदार्थों का भोग करते आ रहे हैं।
आदेश करने वाले निरंकार की इच्छा से ही (सम्पूर्ण सृष्टि के) मार्ग चल रहे हैं।
श्री गुरु नानक देव जी सृष्टि के जीवों को सचेत करते हुए कहते हैं कि वह निरंकार (वाहेगुरु) चिंता रहित होकर (इस संसार के जीवों पर) सदैव प्रसन्न रहता है॥ ३॥
वह अकाल पुरख (निरंकार) अपने सत्य नाम के साथ स्वयं भी सत्य है, उस (सत्य एवं सत्य नाम वाले) को प्रेम करने वाले ही अनंत कहते हैं।
(समस्त देव, दैत्य, मनुष्य तथा पशु इत्यादि) जीव कहते रहते हैं, माँगते रहते हैं, (भौतिक पदार्थ) दे दे करते हैं, वह दाता (परमात्मा) सभी को देता ही रहता है।
अब प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि (जैसे अन्य राजा - महाराजाओं के समक्ष कुछ भेंट लेकर जाते हैं वैसे ही) उस परिपूर्ण परमात्मा के समक्ष क्या भेंट ले जाई जाए कि उसका द्वार सरलता से दिखाई दे जाए ?
जीभा से उसका गुणगान किस प्रकार का करें कि उस गुणगान को सुनकर वह अनंत शक्ति (ईश्वर) हमें प्रेम-प्रसाद प्रदान करे ?
इनका उत्तर गुरु महाराज स्पष्ट करते हैं कि प्रभात काल (अमृत वेला) में (जिस समय व्यक्ति का मन आम तौर पर सांसारिक उलझनों से विरक्त होता है) उस सत्य नाम वाले अकाल पुरख का नाम-स्मरण करें और उसकी महिमा का गान करें, तभी उसका प्रेम प्राप्त कर सकते हैं।
(इससे यदि उसकी कृपा हो जाए तो) गुरु जी बताते हैं कि कर्म मात्र से जीव को यह शरीर रूपी वस्त्र अर्थात् मानव जन्म प्राप्त होता है, इससे मुक्ति नहीं मिलती, मोक्ष प्राप्त करने के लिए उसकी कृपामयी दृष्टि चाहिए।
हे नानक ! इस प्रकार का बोध ग्रहण करो कि वह सत्य स्वरूप निरंकार ही सर्वस्व है इससे मनुष्य के समस्त सन्देह मिट जाएँगे॥ ४ ॥
वह परमात्मा किसी के द्वारा मूर्त रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता, न ही उसे बनाया जा सकता है।
वह मायातीत होकर स्वयं से ही प्रकाशमान है।
जिस मानव ने उस ईश्वर का नाम-स्मरण किया है, उसी ने उसके दरबार में सम्मान प्राप्त किया है।
गुरु नानक देव जी का कथन है कि उस गुणों के भण्डार निरंकार की अराधना करनी चाहिए।
उसका गुणगान करते हुए, प्रशंसा सुनते हुए अपने हृदय में उसके प्रति श्रद्धा धारण करें।
ऐसा करने से दुःखों का नाश होकर घर में सुखों का वास हो जाता है।
गुरु के मुँह से निकला हुआ शब्द ही वेदों का ज्ञान है, वही उपदेश रूपी ज्ञान सभी जगह विद्यमान है।
गुरु ही शिव, विष्णु, ब्रह्मा और माता पार्वती है, क्योंकि गुरु परम शक्ति हैं।
श्री गुरु नानक देव जी का कथन है कि उस सर्गुण स्वरूप परम पिता परमेश्वर को अपनी वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी महिमा अपरम्पार है उसका वर्णन हमारी सुक्ष्म बुद्धि द्वारा नहीं किया जा सकता।।
हे गुरु जी ! मुझे केवल यही बोध करवा दो कि
समस्त जीवों का जो एकमात्र दाता है, मैं कभी भी उसे भूल न पाऊँ ॥ ५॥
तीर्थ-स्नान भी तभी किया जा सकता है यदि ऐसा करना उसे स्वीकार हो, उस अकाल पुरख की इच्छा के बिना मैं तीर्थ-स्नान करके क्या करूँगा, क्योंकि फिर तो यह सब अर्थहीन ही होगा।
उस रचयिता की पैदा की हुई जितनी भी सृष्टि मैं देखता हूँ, उसमें कर्मों के बिना न कोई जीव कुछ प्राप्त करता है और न ही उसे कुछ मिलता है।
यदि गुरु से प्राप्त ज्ञान को हम अपने जीवन में धारण कर ले तो हमारी बुद्धि हीरे-जवाहरात जैसे पद्धार्थों से परिपूर्ण हो जाए भाव हीरे माणिक्य जैसे शोभनीय पद्धार्थों सा हमारा जीवन भी शोभनीय हो जाए।
हे गुरु जी ! मुझे केवल यही बोध करवा दो कि
सृष्टि के समस्त प्राणियों को देने वाला निरंकार मुझ से विस्मृत न हो ॥ ६ ॥
यदि किसी मनुष्य अथवा योगी की योग-साधना करके चार युगों से दस गुणा अधिक, अर्थात्-चालीस युगों की आयु हो जाए।
नवखण्डों (पौराणिक धर्म-ग्रन्थों में वर्णित इलावर्त, किंपुरुष, भद्र, भरत, केतुमाल, हरि, हिरण्य, रम्यक और कुरु) में उसकी कीर्ति हो, सभी उसके सम्मान में साथ चलें।
संसार में प्रख्यात पुरुष बनकर अपनी शोभा का गान करवाता रहे।
यदि अकाल पुरख की कृपादृष्टि में वह मनुष्य नहीं आया तो किसी ने भी उसकी क्षेम नहीं पूछनी।
इतने वैभव तथा मान-सम्मान होने के पश्चात् भी ऐसा मनुष्य परमात्मा के समक्ष कीटों में क्षुद्र कीट अर्थात् अत्यंत अधम समझा जाता है, दोषयुक्त मनुष्य भी उसे दोषी समझेंगे
गुरु नानक जी का कथन है कि वह असीम-शक्ति निरंकार गुणहीन मनुष्यों को गुण प्रदान करता है और गुणी मनुष्यों को अतिरिक्त गुणवान बनाता है।
परंतु ऐसा कोई और दिखाई नहीं देता, जो उस गुणों से परिपूर्ण परमात्मा को कोई गुण प्रदान कर सके II ७ II
परमात्मा का नाम सुनने, अर्थात्-उसकी कीर्ति में अपने हृदय को लगाने के कारण ही सिद्ध, पीर, देव तथा नाथ इत्यादि को परम-पद की प्राप्ति हुई है।
नाम सुनने से ही पृथ्वी, उसको धारण करने वाले वृषभ (पौराणिक धर्म ग्रन्थों के अनुसार जो धौला बैल इस भू-लोक को अपने सीगों पर टिकाए हुए है) तथा आकाश के स्थायित्व की शक्ति का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
नाम सुनने से शाल्मलि, क्रौंच, जम्बू, पलक आदि सप्त द्वीप, भूः, भवः, स्वः आदि चौदह लोक तथा अतल, वितल, सुतल आदि सातों पातालों की व्यापकता प्राप्त होती है।
नाम सुनने वाले को काल स्पर्श भी नहीं कर सकता।
हे नानक ! संत जनों के हृदय में सदैव आनंद का प्रकाश रहता है।
परमात्मा का नाम सुनने से समस्त दुःखों व दुष्कर्मों का नाश होता है॥ ८॥
परमात्मा का नाम सुनने से ही शिव, ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि उत्तम पदवी को प्राप्त कर सके हैं।
मंदे लोग यानी कि बुरे कर्म करने वाले मनुष्य भी नाम को श्रवण करने मात्र से प्रशंसा के योग्य हो जाते हैं।
नाम के साथ जुड़ने से योगादि तथा शरीर के विशुद्ध, मणिपूरक, मूलाधार आदि षट्-चक्र के रहस्य का बोध हो जाता है।
नाम सुनने से षट्-शास्त्र, (सांख्य, योग, न्याय आदि), सत्ताईस स्मृतियों (मनु, याज्ञवल्कय स्मृति आदि) तथा चारों वेदों का ज्ञान उपलब्ध होता है।