यहाँ तक कि मृत्यु का भय उन्हें छू भी नहीं सकती; वे गुरु की शिक्षा के माध्यम से सत्य-प्रभु के नाम में ही मग्न रहते हैं।
सृष्टिकर्ता स्वयं सब में विद्यमान है; जो उसे अच्छा लगता है, उसे वह अपने नाम-सिमरन में लगा देता है।
यदि नानक भगवान् का नाम-सिमरन करते रहते हैं तो वह आध्यात्मिक रूप से जीवन का संचार अनुभव करते हैं; नाम के बिना तो वह एक क्षण में ही स्वयं को मृतक के समान अनुभव करते हैं ॥२॥
पउड़ी ॥
जो प्रभु के दरबार में सम्मानित होता है, वह संसार की समस्त सभाओं के भीतर सम्मानित होता है।
वह(गुरुमुख व्यक्ति)जहाँ भी जाता है, उसे आदरणीय माना जाता है; सभी पापी उसकी संगति करके स्वयं की रक्षा कर लेते हैं।
उसके भीतर नाम का अमूल्य भण्डार है और हरि के नाम द्वारा ही वह स्वीकृत होता है।
अतः हमें प्रेमपूर्वक नाम सिमरन करना चाहिए और प्रभु पर दृढ़ विश्वास रखना चाहिए, हरिनाम ही उसके समस्त पापों को नष्ट करता है।
जो प्राणी प्रभु के नाम का एकाग्र मन व दृढ़ चित से सिमरन करते हैं, वह आध्यात्मिक रूप से स्थिर हो गए हैं एवं इस संसार के अन्दर श्रेष्ठ व्यक्ति बन गया हैं ॥११॥
श्लोक महला ३॥
हमें गुरु द्वारा आशीर्वाद प्राप्त कर आध्यात्मिक संतुलन की स्थिति में रहते हुए प्रेमपूर्वक भगवान् को याद करना चाहिए।
जब जीवात्मा को परम पिता परमेश्वर में आस्था हो जाती है तो उसके हृदय में भगवान् के प्रति प्रेम एवं आत्मीयता जागृत हो जाती है।
जो व्यक्ति गुरु के आचरण में रहकर प्रेम और शिष्टता प्राप्त कर लेता है, वह आध्यात्मिक रूप से स्थिर हो जाता है और माया (सांसारिक धन और शक्ति) के दबाव में नहीं डगमगाता है।
गुरु की शिक्षाओं का पालन किए बिना आध्यात्मिक संतुलन की स्थिति विकसित नहीं होती है और मन में से लालच की मलिनता दूर नहीं होती।
यदि हरि का नाम एक पल व क्षण भर के लिए चित्त में वास कर जाए तो अठसठ तीर्थों के स्नान का फल मिल जाता है।
जो व्यक्ति भगवान् के प्रेम से ओत-प्रोत है, उस पर विकारों की मलिनता कभी नहीं लगती यह केवल जो द्वैतभाव में लगते है मलिनता उन्हें ही लगती है।
चाहे मनुष्य अठसठ तीर्थस्थलों पर स्नान कर ले, यह मैल धोने से बिल्कुल दूर नहीं होती।
मनमुख व्यक्ति अहंकार में धर्म-कर्म करता है और वह सदैव दुःखों का बोझ वहन करता है।
हे नानक ! किसी का मलिन मन तभी पवित्र होता है, यदि वह सतगुरु की शिक्षाओं का ईमानदारी से पालन करता है (और अपने आत्म-दंभ को मिटा देता है)।॥१॥
श्लोक महला ३॥
यदि मनमुख व्यक्ति को समझाने का प्रयास भी किया जाए तो वे समझाने से भी कभी नहीं समझते।
प्रयास करने पर भी मनमुख प्राणी व्यक्ति गुरु के अनुयायियों से नहीं मिल पाता और वह अपने पूर्वनिर्धारित भाग्य के कारण लक्ष्यहीन होकर भटकता रहता है।
प्रभु से प्रीति व माया की लगन दो मार्ग हैं, मनुष्य कौन-सा कर्म करता है अर्थात् किस मार्ग चलता है, वह प्रभु की इच्छा पर निर्भर है।
गुरुमुख व्यक्ति अपने सभी विचारों को गुरु के वचन की कसौटी पर परख कर अपने मन को नियंत्रित करता है।
अपने मन के साथ वह विवाद करता है, अपने मन को समझाता है और अंततः उन बुरे विचारों को अच्छे विचारों में बदलता है।
सच्ची गुरुवाणी की प्रीति से मनुष्य जो कुछ वह चाहता है वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है ।
इसलिए, हमें हमेशा गुरु के अनुयायियों की तरह उनके उपदेशानुसार रहना चाहिए और नाम रूपी अमृत का पान करते रहना चाहिए।
जो अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ विवाद करता है, वह अपना जीवन व्यर्थ ही गंवा कर चला जाएगा।
अहंकारी व्यक्ति जिद्द और मिथ्या आचरण के कारण मनमुख प्राणी अपने जीवन की बाजी हार जाता हैं।
जो लोग गुरु की कृपा से अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे प्रेमपूर्वक अपना ध्यान भगवान पर केंद्रित करते हैं।
हे नानक, गुरु के अनुयायी यानी गुरुमुख व्यक्ति को सत्य का एहसास होता है (वह अनन्त ईश्वर में विलीन हो जाता है) और स्वेच्छाचारी मनुष्य जन्म और मृत्यु के आवागमन में फँसा रहता है।॥२॥
पउड़ी ॥
हे भगवान के संतजनों, भाइयों ! भगवान् रूप सतगुरु का एक परामर्श सुनो।
जिसका भाग्य ऐसा पूर्वनिर्धारित होता है, वही भक्त इस शिक्षा को अपने मन में स्थापित रखता है।
(परामर्श यह है कि) व्यक्ति गुरु के दिव्य शब्द के माध्यम से आध्यात्मिक संतुलन की स्थिति प्राप्त कर सकता है और भगवान् की जीवनदायी उत्कृष्ट प्रशंसा का आनंद ले सकता है।
(जो गुरु की शिक्षाओं का पालन करते हैं) उनके हृदय में प्रभु का प्रकाश हो जाता है, वें आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध हो जाते हैं, और उनके अज्ञान का अंधकार उसी तरह समाप्त हो जाता है जैसे सूर्य रात के अंधेरे को समाप्त कर देता है।
गुरमुख अपने आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध नेत्रों से उस अदृष्ट, अगोचर, अवर्णनीय एवं निर्विकार परमेश्वर के साक्षात् दर्शन कर लेता है॥ १२॥
Shalok, तीसरे mehl: