श्रीरागु महला ३ ॥
यदि सतगुरु मिल जाए तो प्राणी जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उसकी जन्म एवं मृत्यु की पीड़ा निवृत्त हो जाती है।
पूर्ण गुरु के उपदेश द्वारा सारी समझ आ जाती है और मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है।॥१॥
हे मेरे मन ! अपना चित्त गुरु के साथ लगाओं।
हरि का नित्य नवीन और पवित्र नाम स्वतः साधु के मन में बस जाता है।॥१॥ रहाउ॥
हे मेरे परमेश्वर ! मुझे अपने शरणाश्रय में रखो; आप मुझे जैसे रखोगे, मुझे उसी अवस्था में रहना है।
गुरु के द्वारा भवसागर से पार तभी हुआ जा सकता है, यदि गुरु के शब्द द्वारा अहंत्व को मार कर जीवन व्यतीत किया जाए॥२॥
भगवान् का नाम बड़े सोभाग्य से मिलता है, और गुरु के दिव्य वचनों के माध्यम से उनके ज्ञान का पालन करने से जीवन श्रेष्ठ हो जाता है।
जगत् का कर्ता प्रभु स्वयं ही मनुष्य के हृदय में आकर बसता है। फिर मनुष्य सहज ही भगवान् में लीन रहता है॥३॥
कई मनमुखी प्राणियों को प्रभु का नाम अच्छा नहीं लगता। ऐसे मनमुखी प्राणी अज्ञान-बंधन में बंधे चौरासी लाख योनियों में भटकते फिरते हैं।
वे चौरासी लाख योनियों के अंदर बारंबार भटकते हैं और अपना अनमोल जीवन व्यर्थ ही खो देते हैं। ॥४॥
भगवान् के भक्तों के मन में आध्यात्मिक आनंद बना रहता है। वें सर्वदा ईश्वर के प्रेम और उसकी स्तुति के दिव्य शब्दों से ओत-प्रोत रहते हैं।
वें सदैव ही रात-दिन भगवान् के निर्मल नाम की महिमा गाते हैं और सहज ही नाम में लीन रहते हैं।॥५॥
गुरमुख सदैव अमृत समान मधुर वाणी बोलते हैं, क्योंकि वे समस्त प्राणियों के भीतर प्रभु के अंश आत्मा की समानता को पहचानते हैं।
गुरमुखों की कथा अकथनीय है। वे एक प्रभु की सेवा एवं आराधना करते हैं।॥६॥
गुरमुख सच्चे प्रभु की आराधना करते हैं और प्रभु गुरमुख के मन में आकर बसता है।
जो सदैव ही भगवान् के प्रेम में मग्न रहते हैं, उन्हें भगवान् अपनी कृपा करके अपने साथ मिला लेता है ॥७॥
प्रभु स्वयं ही करता है और स्वयं ही करवाता है। वह माया की निद्रा से भी प्राणियों को जगा देता है।
हे नानक ! भगवान् स्वयं ही भक्तों को गुरु के शब्द में मिलाकर अपने में मिला लेता है ॥८ ॥७ ॥२४ ॥
श्रीरागु महला ३ ॥
सतगुरु की सेवा करने से मनुष्य का मन निर्मल और शरीर पवित्र हो जाता है।
समुद्र जैसे गहरे एवं गंभीर प्रभु को पाकर मन आनन्दित हो जाता है और परमसुख प्राप्त करता है।
सत्संग में बैठने वाला जिज्ञासु सत्यनाम के रहस्य को जानकर मन में धैर्य प्राप्त करता है॥१॥
हे मेरे मन ! तू बिना किसी हिचकिचाहट के सच्चे गुरु की सेवा करो और उनकी शिक्षाओं का पालन करो।।
सतगुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा करने से मन में प्रभु का वास होता है और तुझे मोह-माया रूपी मलिनता नहीं लगती अपितु चित्त पूर्णतः पावन हो जाता है॥१॥ रहाउ॥
सत्य नाम द्वारा मनुष्य को लोक-परलोक में बड़ी शोभा प्राप्त होती है। सत्य स्वरूप स्वामी का नाम सत्य है।
मैं उन प्राणियों पर बलिहारी जाता हूँ, जिन्होंने अपनी अहंकार-भावना का नाश करके सत्य को पहचान लिया है।
स्वेच्छाचारी प्राणी उस सत्य को नहीं पा सकते, उनको कहीं भी आश्रय अथवा ठिकाना प्राप्त नहीं होता॥२॥
गुरमुखों का खाना, पहनना एवं रहना सब सत्य ही है।
वह सदैव सच्चे स्वामी की प्रशंसा करते हैं और सत्य नाम के अन्दर उनका निवास है।
उन्होंने सर्वत्र व्याप्त ईश्वर को पहचान लिया है; गुरु की शिक्षाओं का पालन करने से उनका मन अपने भीतर ही केंद्रित रहता है। ॥३ ॥
वह सत्य देखते हैं और सत्य ही बोलते हैं और उनके तन व मन के भीतर वह सत्य ही होता है।
वह शाश्वत ईश्वर की स्मृति के विषय में शिक्षाओं और मार्गदर्शन का अनुसरण करता है; शाश्वत उस व्यक्ति की महिमा बन जाती है जो शाश्वत ईश्वर के समान बन गया है।
जिन्होंने सत्य को विस्मृत कर दिया है, वह सदा दुःखी रहते हैं और विलाप करते हुए असफल जीवन के कारण चले जाते हैं ॥४॥
जिन्होंने सतगुरु की सेवा नहीं की, वह संसार में क्यों आए हैं?
काल का भय उन्हें सताता है और उनकी चीख-पुकार कोई नहीं सुनता,मानो जैसे उन्हें मृत्यु के द्वार पर बांधकर पीटा जा रहा हो।
उन्होंने अपना जीवन व्यर्थ ही खो दिया है और वें पुनः पुनः मरते और जन्म लेते रहते हैं अर्थात् उन्हें मुक्ति नहीं मिलती ॥५॥