रागु धनासरी महला १ ॥
सम्पूर्ण गगन रूपी थाल में सूर्य व चंद्रमा दीपक बने हुए हैं, तारों का समूह जैसे थाल में मोती जड़े हुए हों।
मलय पर्वत की ओर से आने वाली चंदन की सुगंध धूप के समान है, वायु चंवर कर रही है, समस्त वनस्पति जो फूल आदि खिलते हैं, ज्योति स्वरूप अकाल पुरख की आरती के लिए समर्पित हैं।॥ १॥
प्रकृति में तेरी कैसी अलौकिक आरती हो रही है सृष्टि के जीवों का जन्म-मरण नाश करने वाले हे प्रभु !
कि जो एक रस वेद ध्वनि हो रही है वह मानों नगारे बज रहे हों। ॥१॥ रहाउ॥
आपके पास हजारों आंखें हैं, फिर भी आपके पास कोई आंख नहीं है। आपके पास हजारों रूप हैं, फिर भी आपके पास एक भी नहीं है।
सगुण स्वरूप में तुम्हारे हज़ारों निर्मल चरण-कमल हैं किंतु तुम्हारा निर्गुण स्वरूप होने के कारण एक भी चरण नहीं है, तुम घाणेन्द्रिय (नासिका) रहित भी हो और तुम्हारी हज़ारों ही नासिकाएँ है; तुम्हारा यह आश्चर्यजनक स्वरूप मुझे मोहित कर रहा है॥ २॥
सृष्टि के समस्त प्राणियों में उस ज्योति-स्वरूप की ज्योति ही प्रकाशमान है।
उसी की प्रकाश रूपी कृपा से सभी में जीवन का प्रकाश है।
किंतु गुरु उपदेश द्वारा ही इस ज्योति का बोध होता है।
जो उस ईश्वर को भला लगता है वही उसकी आरती होती है॥ ३॥
मेरा मन भगवान के मधुर कमल चरणों से मोहित हो गया है। दिन-रात मैं उनके लिए प्यासा रहता हूँ।
हे निरंकार ! मुझ नानक पपीहे को अपना कृपा-जल दो, जिससे मेरे मन का टिकाव तुम्हारे नाम में हो जाए॥ ४॥ ३॥
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
यह मानव शरीर काम व क्रोध जैसे विकारों से पूरी तरह भरा हुआ है; लेकिन सन्तजनों के मिलाप से तुमने काम, क्रोध को क्षीण कर दिया हैं।
जिस मनुष्य ने पूर्व लिखित कर्मो के माध्यम से गुरु को प्राप्त किया है, उसका चंचल मन ही ईश्वर में लीन हुआ है॥ १॥
संत-जनों को हाथ जोड़कर वंदना करना बड़ा पुण्य कर्म है।
उन्हें दण्डवत् प्रणाम करना भी महान् पुण्य कार्य है॥ १॥ रहाउ॥
पतित मनुष्यों (माया में लिप्त अथवा जो परमेश्वर से विस्मृत) ने अकाल पुरख के रस का आनंद नहीं पाया,क्योंकि उनके अंतर में अहंकार रूपी कांटा होता है।
जैसे-जैसे वह अहंकारवश जीवन मार्ग पर चलते हैं, वह अहं का कांटा उन्हें चुभ-चुभ कर कष्ट देता रहता है और अंतिम समय में यमों द्वारा दी जाने वाली यातना को सहन करते हैं।॥ २ ॥
इसके अतिरिक्त जो मानव जीव सांसारिक वैभव अथवा भौतिक पदार्थों का त्याग करके परमेश्वर के भक्त बन कर उसके सिमरन में लीन रहते हैं, वें आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त करके संसार के दु:खों से छूट जाते हैं,
उन्हें नाश रहित सर्वव्यापक परमात्मा मिल जाता हैं और खण्डों-ब्रह्मण्डों में उनको शोभायमान किया जाता है॥ ३||
हे प्रभु ! हम निर्धन व निराश्रय तुम्हारे ही अधीन हैं, तुम सर्वोच्चतम शक्ति हो, इसलिए हमें इन विकारों से बचा लो।
हे नानक ! जीव को तुम्हारे ही नाम का आश्रय है, हरि के नाम में लिप्त होने से ही आत्मिक सुखों की प्राप्ति होती है॥ ४॥ ४॥
रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ॥
हे सत्संगी मित्रो ! सुनो, मैं तुम्हे प्रार्थना करता हूँ कि यह जो मानव शरीर प्राप्त हुआ हैं, वह संत जनों की सेवा करने का शुभावसर है।
यदि सेवा करोगे तो इस जन्म में प्रभु के नाम-सिमरन का लाभ प्राप्त होगा, जिससे परलोक में वास सरलता से होगा ॥ १॥
हे मन ! समय व्यतीत होते हुए निशदिन यह उम्र कम हो रही है।
इसलिए तुम गुरु से मिलकर उनकी शिक्षा ग्रहण करके अपने जीवन के पार हेतु समस्त कार्य पूर्ण कर लो॥ १॥ रहाउ॥
इस जगत् में समस्त जीव काम-क्रोधादि विकारों और भ्रमों में लिप्त हैं, यहाँ से कोई तत्वेता यानी ब्रह्म का ज्ञान रखने वाला ही मोक्ष को प्राप्त हुआ है।
विकारों में लिप्त जिस मानव को ईश्वर ने स्वयं माया रूपी निद्रा से जगाकर नाम-रस पिला दिया, वही उस अकथनीय प्रभु की अलौकिक कथा को जान सका है॥
इसलिए हे सत्संगियों ! जिस नाम रूप अमूल्य वस्तु का व्यापार करने आए हो उसे ही खरीदो, इस मन में हरि का वास गुरु द्वारा ही होता है।
यदि तुम गुरु की शरण लोगे तभी इस हृदय रूपी घर में हरि का स्वरूप बसा सकोगे और आत्मिक सुखों का आनंद प्राप्त करोगे, जिससे फिर इस संसार में आने-जाने का चक्र समाप्त हो जाएगा ॥ ३॥
हे मेरे अंतर्मन को जानने वाले सर्वव्यापक सृजनहार ! मेरे मन की श्रद्धा को पूर्ण करो।
गुरु साहिब कथन करते हैं कि यह सेवक केवल यही कामना करता है कि मुझे केवल संतों की चरण-धूल बना दो अर्थात् मुझे उनके बताए मार्ग का अनुगामी बना दो ॥४ ॥ ५॥