श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 79


ਹਰਿ ਕਪੜੋ ਹਰਿ ਸੋਭਾ ਦੇਵਹੁ ਜਿਤੁ ਸਵਰੈ ਮੇਰਾ ਕਾਜੋ ॥
हरि कपड़ो हरि सोभा देवहु जितु सवरै मेरा काजो ॥

जितनी भी सांसारिक वस्तुओं को तुम प्रतिदिन एकत्रित कर अपने लिए संजोते रहे वह तुम्हारी मृत्यु के पश्चात् उसी क्षण किसी और की हो जाएँगी।

ਹਰਿ ਹਰਿ ਭਗਤੀ ਕਾਜੁ ਸੁਹੇਲਾ ਗੁਰਿ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦਾਨੁ ਦਿਵਾਇਆ ॥
हरि हरि भगती काजु सुहेला गुरि सतिगुरि दानु दिवाइआ ॥

(माया के प्रति आसक्ति के कारण) प्राणी का विवेक कुंठित हो जाता है। माया द्वारा उसकी बुद्धि हर ली जाती है। बुरे कर्मों में लिप्त व्यक्ति अंत में अपने किए दुष्कर्मों को याद कर पछताने लगता है।

ਖੰਡਿ ਵਰਭੰਡਿ ਹਰਿ ਸੋਭਾ ਹੋਈ ਇਹੁ ਦਾਨੁ ਨ ਰਲੈ ਰਲਾਇਆ ॥
खंडि वरभंडि हरि सोभा होई इहु दानु न रलै रलाइआ ॥

श्री गुरु नानक कहते हैं : हे जीव! कम से कम तुम अपनी जीवन रूपी रात्रि के तृतीय पहर(जीवन के तीसरे चरण) में चित्त लगाकर भगवान् का सिमरन करो ॥३॥

ਹੋਰਿ ਮਨਮੁਖ ਦਾਜੁ ਜਿ ਰਖਿ ਦਿਖਾਲਹਿ ਸੁ ਕੂੜੁ ਅਹੰਕਾਰੁ ਕਚੁ ਪਾਜੋ ॥
होरि मनमुख दाजु जि रखि दिखालहि सु कूड़ु अहंकारु कचु पाजो ॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! भगवान् के नाम के व्यापारी (भक्त),जीवन रूपी रात्रि के चौथे पहर (जीवन के चतुर्थ चरण) में शरीर शिथिल हो जाता है। वृद्धावस्था आने पर तन में कमजोरी आ जाती है।

ਹਰਿ ਪ੍ਰਭ ਮੇਰੇ ਬਾਬੁਲਾ ਹਰਿ ਦੇਵਹੁ ਦਾਨੁ ਮੈ ਦਾਜੋ ॥੪॥
हरि प्रभ मेरे बाबुला हरि देवहु दानु मै दाजो ॥४॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन की इस अवस्था में आंखों की शक्ति शिथिल पड़ जाती है, उनसे ठीक से दिखाई नहीं देता और कानों से वह सुन नहीं पाता।

ਹਰਿ ਰਾਮ ਰਾਮ ਮੇਰੇ ਬਾਬੋਲਾ ਪਿਰ ਮਿਲਿ ਧਨ ਵੇਲ ਵਧੰਦੀ ॥
हरि राम राम मेरे बाबोला पिर मिलि धन वेल वधंदी ॥

नेत्र ज्योति नहीं रहती, जिह्वा का रस भी चला जाता है और मानव केवल दूसरों के आश्रित होकर जीवनयापन करने लगता है।

ਹਰਿ ਜੁਗਹ ਜੁਗੋ ਜੁਗ ਜੁਗਹ ਜੁਗੋ ਸਦ ਪੀੜੀ ਗੁਰੂ ਚਲੰਦੀ ॥
हरि जुगह जुगो जुग जुगह जुगो सद पीड़ी गुरू चलंदी ॥

यदि उस मनमुख के भीतर कोई आध्यात्मिक गुण कभी प्रतिष्ठित नहीं हुआ तो अब उसे सुख कैसे प्राप्त हो। अतः वो बेचारा यूँ ही जीवन-मरण के चक्र में पड़ा रहता है।

ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਪੀੜੀ ਚਲੈ ਸਤਿਗੁਰ ਕੀ ਜਿਨੀ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ॥
जुगि जुगि पीड़ी चलै सतिगुर की जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ ॥

जिस प्रकार तैयार फसल झुकने पर बिखर जाती है ठीक उसी प्रकार वृद्धावस्था आने पर शरीर-रूपी खेती पककर झुक जाती है। कभी अपने आप अंग टूटते लगते हैं, शरीर नष्ट हो जाता है। हे प्राणी! फिर इस शरीर का कैसा अभिमान जो आता है और चला जाता है?

ਹਰਿ ਪੁਰਖੁ ਨ ਕਬ ਹੀ ਬਿਨਸੈ ਜਾਵੈ ਨਿਤ ਦੇਵੈ ਚੜੈ ਸਵਾਇਆ ॥
हरि पुरखु न कब ही बिनसै जावै नित देवै चड़ै सवाइआ ॥

श्री गुरु नानक कहते हैं : हे मेरे वणजारे मित्र! प्राणी को कम से कम अपनी जीवन रूपी रात्रि के चतुर्थ चरण में गुरु के उपदेशों के माध्यम से प्रभु नाम की पहचान करनी चाहिए ॥४॥

ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਸੰਤ ਹਰਿ ਏਕੋ ਜਪਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸੋਹੰਦੀ ॥
नानक संत संत हरि एको जपि हरि हरि नामु सोहंदी ॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! तुम्हें मिले श्वासों का अन्तिम समय निकट आ गया है और जालिम बुढ़ापा तुम्हारे कंधों पर है।

ਹਰਿ ਰਾਮ ਰਾਮ ਮੇਰੇ ਬਾਬੁਲਾ ਪਿਰ ਮਿਲਿ ਧਨ ਵੇਲ ਵਧੰਦੀ ॥੫॥੧॥
हरि राम राम मेरे बाबुला पिर मिलि धन वेल वधंदी ॥५॥१॥

प्रभु, राम, राम, सब तरफ फैल जाता है, मेरे पिता ओ। उसके पति स्वामी, बैठक उत्कर्ष बेल की तरह आगे आत्मा दुल्हन फूल। । । 5 । 1 । । ।

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੫ ਛੰਤ ॥
सिरीरागु महला ५ छंत ॥

ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मृत्यु का भय और यम का जाल उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता। वह प्रेमपूर्वक भगवान् की भक्ति करके भवसागर से पार हो जाता है।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀਉ ਮਿਤ੍ਰਾ ਗੋਬਿੰਦ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲੇ ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा गोबिंद नामु समाले ॥

फिर प्रभु उसके सारे कष्ट दूर कर देते हैं। वह जीव सदा आध्यात्मिक स्थिति में स्थिर रहता है और सम्मानपूर्वक इस लोक से चला जाता है।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਨਿਬਹੈ ਤੇਰੈ ਨਾਲੇ ॥
मन पिआरिआ जी मित्रा हरि निबहै तेरै नाले ॥

गुरु नानक कहते हैं, जो गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण करता है, वह जीव सांसारिक भय से मुक्त हो जाता है और शाश्वत ईश्वर से सम्मान प्राप्त करता है।॥५॥२॥

ਸੰਗਿ ਸਹਾਈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈ ਬਿਰਥਾ ਕੋਇ ਨ ਜਾਏ ॥
संगि सहाई हरि नामु धिआई बिरथा कोइ न जाए ॥

श्रीरागु महला ੪ ॥

ਮਨ ਚਿੰਦੇ ਸੇਈ ਫਲ ਪਾਵਹਿ ਚਰਣ ਕਮਲ ਚਿਤੁ ਲਾਏ ॥
मन चिंदे सेई फल पावहि चरण कमल चितु लाए ॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! ईश्वर प्राणी को जीवन रूपी रात्रि के प्रथम पहर में माँ के गर्भ में रखता है।

ਜਲਿ ਥਲਿ ਪੂਰਿ ਰਹਿਆ ਬਨਵਾਰੀ ਘਟਿ ਘਟਿ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲੇ ॥
जलि थलि पूरि रहिआ बनवारी घटि घटि नदरि निहाले ॥

हे वणजारे मित्र ! माँ के गर्भ में पड़ा प्राणी ईश्वर की आराधना करता है, वह हरि का नाम अपने मुख से उच्चरित करता रहता है। वह अपने मन द्वारा हरि नाम का सिमरन करता रहता है।

ਨਾਨਕੁ ਸਿਖ ਦੇਇ ਮਨ ਪ੍ਰੀਤਮ ਸਾਧਸੰਗਿ ਭ੍ਰਮੁ ਜਾਲੇ ॥੧॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम साधसंगि भ्रमु जाले ॥१॥

प्राणी भगवान् पर ध्यान केंद्रित कर और उसका स्मरण एवं ध्यान करके ही माँ की गर्भ-अग्नि में जीवित रहता है।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਝੂਠੁ ਪਸਾਰੇ ॥
मन पिआरिआ जी मित्रा हरि बिनु झूठु पसारे ॥

जब वह जन्म लेकर माँ के गर्भ में से बाहर आता है तो माता-पिता उसका मुख देखकर प्रसन्न होते हैं।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀਉ ਮਿਤ੍ਰਾ ਬਿਖੁ ਸਾਗਰੁ ਸੰਸਾਰੇ ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा बिखु सागरु संसारे ॥

हे प्राणीयों ! प्रेम एवं श्रद्धापूर्वक उस प्रभु का स्मरण करो जिसका उपहार यह वस्तु (बालक) है तथा गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से अपने हृदय में उनके गुणों को प्रतिबिंबित करें।

ਚਰਣ ਕਮਲ ਕਰਿ ਬੋਹਿਥੁ ਕਰਤੇ ਸਹਸਾ ਦੂਖੁ ਨ ਬਿਆਪੈ ॥
चरण कमल करि बोहिथु करते सहसा दूखु न बिआपै ॥

हे नानक ! जीवन रूपी रात्रि के प्रथम चरण में तभी नाम-सिमरन किया जा सकता है। यदि भगवान् अपनी कृपा प्रदान करें ॥१॥

ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ ਭੇਟੈ ਵਡਭਾਗੀ ਆਠ ਪਹਰ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਪੈ ॥
गुरु पूरा भेटै वडभागी आठ पहर प्रभु जापै ॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन रूपी रात्रि के द्वितीय चरण में प्राणी का मन द्वैत भावना से ओत-प्रोत होता है भाव माया के आकर्षणों में लीन हो जाता है।

ਆਦਿ ਜੁਗਾਦੀ ਸੇਵਕ ਸੁਆਮੀ ਭਗਤਾ ਨਾਮੁ ਅਧਾਰੇ ॥
आदि जुगादी सेवक सुआमी भगता नामु अधारे ॥

हे मेरे व्यापारी मित्र, माता-पिता बालक को ‘मेरा-मेरा' करके प्रीतिपूर्वक उसका पालन-पोषण करते हैं और उसे अपने गले से लगाते हैं।

ਨਾਨਕੁ ਸਿਖ ਦੇਇ ਮਨ ਪ੍ਰੀਤਮ ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਝੂਠ ਪਸਾਰੇ ॥੨॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम बिनु हरि झूठ पसारे ॥२॥

माता-पिता सदा उस बालक को अपने गले से लगाते हुए सोचते हैं कि वह बड़ा होकर उनका भरण-पोषण करेगा।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀਉ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਲਦੇ ਖੇਪ ਸਵਲੀ ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि लदे खेप सवली ॥

प्राणी कितना मूर्ख है कि देने वाले (दाता) को तो पहचानने का प्रयास नहीं करता और उसकी प्रदान की हुई नश्वर वस्तुओं से लिपटता फिरता है।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀਉ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਦਰੁ ਨਿਹਚਲੁ ਮਲੀ ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि दरु निहचलु मली ॥

कोई दुर्लभ गुरमुख जीव ही गुरु की शिक्षाओं का पालन करता है और भक्ति करता है। वह अपना मन भगवान् पर केंद्रित कर उसका ध्यान करता है एवं उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करता है।

ਹਰਿ ਦਰੁ ਸੇਵੇ ਅਲਖ ਅਭੇਵੇ ਨਿਹਚਲੁ ਆਸਣੁ ਪਾਇਆ ॥
हरि दरु सेवे अलख अभेवे निहचलु आसणु पाइआ ॥

हे नानक ! जीवन रूपी रात्रि के द्वितीय चरण में जो प्राणी भगवान् का ध्यान करता है, उसे आध्यात्मिक मृत्यु का कदापि सामना नहीं करना पड़ता ॥२ ॥

ਤਹ ਜਨਮ ਨ ਮਰਣੁ ਨ ਆਵਣ ਜਾਣਾ ਸੰਸਾ ਦੂਖੁ ਮਿਟਾਇਆ ॥
तह जनम न मरणु न आवण जाणा संसा दूखु मिटाइआ ॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! जीवन रूपी रात्रि के तृतीय चरण में मनुष्य का मन सांसारिक मोह-पाश में फँसा रहता है।

ਚਿਤ੍ਰ ਗੁਪਤ ਕਾ ਕਾਗਦੁ ਫਾਰਿਆ ਜਮਦੂਤਾ ਕਛੂ ਨ ਚਲੀ ॥
चित्र गुपत का कागदु फारिआ जमदूता कछू न चली ॥

हे मेरे वणजारे मित्र ! जीव धन-दौलत का ही ध्यान करता है और धन-दौलत ही संग्रह करता है। परन्तु हरि-नाम और हरि का चिन्तन नहीं करता।

ਨਾਨਕੁ ਸਿਖ ਦੇਇ ਮਨ ਪ੍ਰੀਤਮ ਹਰਿ ਲਦੇ ਖੇਪ ਸਵਲੀ ॥੩॥
नानकु सिख देइ मन प्रीतम हरि लदे खेप सवली ॥३॥

हाँ, कोई भी कदाचित् हरि-नाम और हरि को स्मरण नहीं करता, जो अंत में उसका सहायक होना है।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀਉ ਮਿਤ੍ਰਾ ਕਰਿ ਸੰਤਾ ਸੰਗਿ ਨਿਵਾਸੋ ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा करि संता संगि निवासो ॥

हे प्रिय मन, मेरे मित्र, संतों की संगति में रहो।

ਮਨ ਪਿਆਰਿਆ ਜੀਉ ਮਿਤ੍ਰਾ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਪਰਗਾਸੋ ॥
मन पिआरिआ जीउ मित्रा हरि नामु जपत परगासो ॥

हे मेरे प्रिय मन, मेरे मित्र, भगवान का नाम जपने से दिव्य प्रकाश भीतर चमकता है।

ਸਿਮਰਿ ਸੁਆਮੀ ਸੁਖਹ ਗਾਮੀ ਇਛ ਸਗਲੀ ਪੁੰਨੀਆ ॥
सिमरि सुआमी सुखह गामी इछ सगली पुंनीआ ॥

अपने प्रभु और स्वामी को याद करो, जो आसानी से प्राप्त हो जाते हैं, और सारी इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी।


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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