कुमार्गी पुरुष पुत्र-पुत्रियों एवं सगे-संबंधियों को अपना मान बैठता है
वह अपनी गृहलक्ष्मी पत्नी को देख कर बड़ा प्रसन्न होता है। उसे हर्ष-शोक दोनों का सामना करना पड़ता है।
पर गुरमुख गुरु-शब्दों द्वारा हरि-नाम में लिवलीन हैं और वह दिन-रात प्रभु के अमृत का आनंद लेते हैं।॥ ३॥
जब कोई अविश्वासी निंदक धन खो देता है, तो उसका मन डोल जाता है और अस्थिर रहता है।भाव उसका मन क्षण-भंगुर धन-दौलत की तलाश में भटकता रहता है।
जबकि पदार्थ उनके गृह(अन्तरात्मा) के पवित्र स्थान में है, मनुष्य उसकी बाहर तलाश करने से नष्ट हो जाते हैं।
गुरमुख इसको अपने दामन में प्राप्त कर लेते हैं, जबकि कुमार्गी अहंकार द्वारा इसको गंवा लेते हैं।॥४॥
हे गुणहीन शाक्त ! तू अपने मूल की पहचान कर।
यह शरीर रक्त और वीर्य का बना है। इसका अन्त अग्नि में जलकर राख हो जाने में है।
यह शरीर प्राण रूपी वायु के वश में है। तेरे मस्तिष्क पर श्वासों की संख्या पहले ही लिख दी गई है ॥५॥
प्रत्येक प्राणी लम्बी आयु की कामना करता है और कोई भी मरना नहीं चाहता।
उसी का जीवन सुखदायक कहा जा सकता है, जिस सज्जन पुरुष के भीतर गुरु-कृपा से प्रभु निवास करता है,
नाम-विहीन प्राणी का क्या महत्त्व है जिसको भगवान् का रूप गुरु के दर्शन नहीं होते॥६॥
जिस तरह मनुष्य स्वप्न में रात्रिकाल निद्रा-मग्न रहता है, भूला फिरता है,
इसी तरह वह प्राणी मुश्किलों में भटकता है, जिसके हृदय में अहंकार तथा द्वैत-भावना है और जो माया रूपी सर्पिणी के वश में है।
गुरु के उपदेशानुसार ही प्राणी अनुभव करता एवं देखता है कि यह संसार केवल स्वप्न मात्र ही है॥ ७॥
जिस तरह जल से अग्नि बुझ जाती है, जिस तरह माता के दुग्ध से शिशु संतुष्ट हो जाता है।
जिस तरह जल के बिना कमल नहीं रहता और जिस तरह जल के बिना मछली मर जाती है,
इसी तरह ही हे नानक ! यदि मुझे गुरु द्वारा हरि रस मिल जाए तो ही मैं भगवान् की महिमा गाकर जीवित रह सकता हूँ॥ ८ ॥१५॥
श्रीरागु महला १ ॥
मैं अपने पीहर (इहलोक) में भयानक पर्वत देखकर सहम गई हूँ।
पर्वत ऊँचा और चढ़ाई कठिन है। वहाँ तक पहुँचने के लिए कोई भी सीढ़ी नहीं।
गुरु की कृपा से मैंने पर्वत को भीतर ही पहचान लिया है। गुरु ने मुझे उससे मिला दिया है और मैं (भवसागर) से पार हो गई हूँ॥१॥
हे भाई ! भवसागर बड़ा विषम एवं भयभीत करने वाला है।
यदि हरि रस का पान कराने वाला पूर्ण सतगुरु मिल जाए तो गुरु उसे भगवान् का नाम प्रदान करके भवसागर से पार करवा देते हैं॥१॥ रहाउ ॥
यदि मैं कहूँ, “मैंने चले जाना है“ इसका मुझे कोई लाभ नहीं होना। परन्तु यदि मैं वास्तविक रूप से अनुभव कर लूं मैं कूच कर जाने वाला हूँ, तभी होगा।
जो कोई भी दुनिया में आया है, वह एक न एक दिन चला जाएगा केवल सृजनहार रूपी गुरु ही अमर है।
इसलिए सच्चे स्थान सत्संगत में मिलकर श्रद्धा से सत्य परमात्मा की महिमा-स्तुति करनी चाहिए॥२॥
जिनके पास सुन्दर दरवाजे, मकान, मन्दिर एवं हजारों ही मजबूत किले,
हाथी-घोड़े पालकियाँ एवं लाखों ही सेना हो,
इन में कुछ भी किसी के साथ नहीं जाते। मूर्ख लोग व्यर्थ ही इनके लिए जूझ-जूझकर मरते हैं॥ ३॥
मनुष्य सोना तथा चांदी कितना भी एकत्रित कर ले, परन्तु दौलत मनुष्य को फँसाने वाला जाल है।
वह अपनी सल्तनत का ढिंढोरा सारे जगत् में करवा दें परन्तु हरि-नाम के बिना मृत्यु उसके सिर पर सवार है।
जब मनुष्य प्राण त्याग देता है तो शरीर पार्थिव हो जाता है और जीवन का अंत हो जाता है। तब दुष्टों का क्या हश्र होगा ॥४॥
मनुष्य अपने पुत्रों को देखकर एवं अपनी पत्नी को सेज पर निहार कर बहुत खुश होता है।
मनुष्य शरीर पर इत्र और चन्दन लगाता है और सुन्दर वस्त्रों के साथ अपना श्रृंगार करता है।
किन्तु जब वह प्राण त्याग कर इस संसार से चला जाता है तो शरीर मिट्टी में मिला दिया जाता है।॥५॥
कोई व्यक्ति स्वयं को भूमिपति, महाराजा, बादशाह, उच्चाधिकारी कहलवाता है।
कोई स्वयं को चौधरी एवं नवाब कहलवाता है परन्तु ये सभी अभिमान की अग्नि में जल मरते हैं।
मनमुख जीव ने भगवान् के नाम को भुला दिया है। वह ऐसे बन गया है जैसे जंगल को लगी अग्नि में जला हुआ सरकण्डा होता है॥६॥
जो भी इस संसार में आया है, (ईश्वर का स्मरण किये बिना) अहंकार से ग्रस्त हुआ इस संसार से गमन कर जाता है।