सत्य ईश्वर के यशोगान से उन्हें सहज अवस्था की उपलब्धि होती है और मनुष्य बहुत शोभा प्राप्त करता है। वे हरि नाम के सहारे रहते हैं।
हे प्रभु ! जिस तरह तुझे अच्छा लगता है, वैसे ही आप मुझे रखो चूंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कोई नहीं ॥३॥
निरंतर ग्रंथों के अध्ययन करके मनुष्य भूल में पड़ जाते हैं और धार्मिक वेष धारण करके वे बहुत अभिमान करते हैं
तीर्थ स्थल पर स्नान करने का क्या लाभ है, जबकि उसके चित्त में अहंकार की मैल है?
मन शरीर रूपी नगरी का राजा है, सुलतान है। इसे गुरु बिना अन्य कौन समझा सकता है॥४॥
गुरु द्वारा वास्तविकता को सोचने-समझने से प्रभु-प्रेम का धन प्राप्त होता है।
अपने आपको गुरु के शब्द द्वारा श्रृंगारित कर, पत्नी ने अपना अहंकार निवृत्त कर दिया है।
गुरु के अपार प्रेम द्वारा वह अपने गृह(अन्तरात्मा)के भीतर ही उस प्रीतम को प्राप्त कर लेती है॥ ५॥
गुरु की चाकरी और सेवा करने से मन निर्मल हो जाता है और उसे सुख की उपलब्धि होती है।
जब गुरु का शब्द अंत:करण में निवास कर लेता है तो अभिमान भीतर से निवृत्त हो जाता है।
इससे नाम रूपी दौलत प्राप्त हो जाती है और आत्मा सदैव लाभ अर्जित करती है॥ ६॥
यदि हम पर परमात्मा की अनुकंपा हो तो हमें नाम प्राप्त होता है। हम अपने साधन से इसे प्राप्त नहीं कर सकते।
इसलिए अहंकार का नाश करके गुरु के आश्रय में आओ।
शाश्वत ईश्वर के प्रेम में रंग जाने से अंततः हमें परमात्मा प्राप्त हो ही जाता है॥ ७॥
सारे प्राणी भूल करने वाले हैं परन्तु गुरु और सृष्टिकर्ता परमात्मा ही अचूक है।
जिसने गुरु के उपदेश द्वारा अपने मन को सुधारा है, उसका ईश्वर से स्नेह हो जाता है।
हे नानक ! जिसे अपार प्रभु अपने नाम के साथ मिला लेता है। वह सत्यनाम को कदापि विस्मृत नहीं करता ॥ ८ ॥ १२॥
श्रीरागु महला १ ॥
मोहिनी माया की तृष्णा पुत्रों, रिश्तेदारों एवं घर की स्त्री सब को लगी हुई है।
इस जगत् को धन, यौवन, लालच, लोभ और अहंकार ने छल लिया है।
मोह रूपी ठग बूटी के हाथों मैं लुट गई हूँ। ऐसा हाल ही शेष दुनिया का (इसके द्वारा) होता है ॥१॥ भाव माया ने मुझे ठग कर मेरे आध्यात्मिक मार्ग को नष्ट कर दिया है और इस संसार के समस्त जीवों का यही हाल है।
हे मेरे प्रियतम प्रभु ! तुझ बिन मेरा अन्य कोई नहीं।
तुझ बिन, अन्य कुछ भी मुझे नहीं लुभाता। तुझे प्रेम करने से मुझे सुख-शांति प्राप्त होती है ॥१॥ रहाउ॥
गुरु के शब्द द्वारा संतोष धारण करो और प्रेमपूर्वक परमात्मा के नाम की सराहना करो।
समस्त दृश्यमान संसार नश्वर है, इसके झूठे मोह के साथ प्रीति न लगा।
तुम मार्ग के पथिक की भाँति आए हो अर्थात् सारा जगत् यात्री है। प्रतिदिन अपने साथियों को हम गतिमान देखते हैं।॥२॥
कई पुरुष धर्मोपदेश का प्रचार करते हैं, परन्तु गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
यदि व्यक्ति को नाम की प्रशंसा प्राप्त हो जाए तो वह सत्य के साथ रंग जाता है और मान-सम्मान पा लेता है।
हे प्रभु ! जो आपको अच्छे लगते हैं, वह सर्वोत्तम हैं। अपने आप कोई भी खोटा अथवा खरा नहीं ॥ ३॥
गुरु की शरण लेने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। मनमुख की पूंजी ही असत्य है। भाव स्वेच्छाचारी व्यक्ति सदैव झूठा (सांसारिक) धन इकट्ठा करता है।
बादशाह की अपनी आठ धातुओं पर अधिकार होता है। उसकी इच्छानुसार ही सिक्के ढाले जाते हैं और मूल्य पाया जाता है।
परीक्षक स्वयं ही सिक्कों की परीक्षा कर लेता है और विशुद्ध को अपने कोष में डाल लेता है ॥४॥
हे प्रभु ! तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता। मैंने सब कुछ मूल्यांकन करके देख लिया है।
कहने से उसकी गहराई नहीं पाई जा सकती। यदि मनुष्य सत्य के अंदर टिक जाए, वह सम्मान पा लेता है।
गुरु का उपदेश यह है कि व्यक्ति को आपकी प्रशंसा करनी चाहिए, और स्वीकार करना चाहिए कि आपके मूल्य या सीमा का वर्णन नहीं किया जा सकता है।॥५॥
जिस तन को नाम अच्छा नहीं लगता, वह तन अहंकार वाद-विवाद का सताया हुआ है।
गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता, अन्य रस पूरी तरह विषैले हैं।
गुणों के बिना कुछ भी काम नहीं आना। धन-दौलत का स्वाद बहुत निरस है ॥६॥
आशा में ही मनुष्य उत्पन्न हुआ है और आशा के अंदर ही वह मीठे तथा खट्टे पदार्थ सेवन करता है।
तृष्णा में बंधा हुआ वह आगे को धकेला जाता है और अपने मुख पर पुनःपुनः चोटें खाता है।
लेकिन गुरु की शिक्षा अनुसार नाम-सिमरन करने से उसकी मुक्ति हो जाती है ॥७ ॥