श्री गुरु ग्रंथ साहिब

पृष्ठ - 35


ਮਨਮੁਖ ਜਨਮੁ ਬਿਰਥਾ ਗਇਆ ਕਿਆ ਮੁਹੁ ਦੇਸੀ ਜਾਇ ॥੩॥
मनमुख जनमु बिरथा गइआ किआ मुहु देसी जाइ ॥३॥

स्वेच्छाचारी जीव का जन्म व्यर्थ चला जाता है, ऐसे में वह आगे परलोक में जाकर क्या मुंह दिखाएगा ? ॥ ३॥

ਸਭ ਕਿਛੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ਹੈ ਹਉਮੈ ਵਿਚਿ ਕਹਨੁ ਨ ਜਾਇ ॥
सभ किछु आपे आपि है हउमै विचि कहनु न जाइ ॥

वह परमात्मा ही सर्वस्व है, यह बात अहंकारी जीव द्वारा नहीं कही जा सकती।

ਗੁਰ ਕੈ ਸਬਦਿ ਪਛਾਣੀਐ ਦੁਖੁ ਹਉਮੈ ਵਿਚਹੁ ਗਵਾਇ ॥
गुर कै सबदि पछाणीऐ दुखु हउमै विचहु गवाइ ॥

गुरु का उपदेश पहचान कर ही कष्टदायक अहंकार को हृदय में से निकाला जा सकता है।

ਸਤਗੁਰੁ ਸੇਵਨਿ ਆਪਣਾ ਹਉ ਤਿਨ ਕੈ ਲਾਗਉ ਪਾਇ ॥
सतगुरु सेवनि आपणा हउ तिन कै लागउ पाइ ॥

मायके रूपी इस लोक में तुम्हारा सदा के दिए वास नहीं हो सकता॥ ३॥

ਨਾਨਕ ਦਰਿ ਸਚੈ ਸਚਿਆਰ ਹਹਿ ਹਉ ਤਿਨ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਉ ॥੪॥੨੧॥੫੪॥
नानक दरि सचै सचिआर हहि हउ तिन बलिहारै जाउ ॥४॥२१॥५४॥

नानक देव जी कथन करते हैं कि सत्य स्वरूप परमात्मा के द्वार पर वे जीव ही सत्य धारण करते हैं और मैं उन पर बलिहारी जाता हूँ ॥४॥२१॥५४॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥

श्रीरागु महला ३ ॥

ਜੇ ਵੇਲਾ ਵਖਤੁ ਵੀਚਾਰੀਐ ਤਾ ਕਿਤੁ ਵੇਲਾ ਭਗਤਿ ਹੋਇ ॥
जे वेला वखतु वीचारीऐ ता कितु वेला भगति होइ ॥

हे मेरे मन! यदि तुम प्रभु का सिमरन करने के लिए उपयुक्त समय को ढूंढते रहे तो तुम देखोगे कि उसकी भक्ति के लिए कोई भी समय निर्धारित नहीं है। भाव यह सब व्यर्थ है क्यूंकि प्रभु का सिमरन करने के लिए किसी विशेष अवसर या समय की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे तो सभी समय स्वीकार्य हैं ।

ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੇ ਰਤਿਆ ਸਚੇ ਸਚੀ ਸੋਇ ॥
अनदिनु नामे रतिआ सचे सची सोइ ॥

दिन-रात परमात्मा के नाम में विलीन रहने वाले जीव की शोभा होती है।

ਇਕੁ ਤਿਲੁ ਪਿਆਰਾ ਵਿਸਰੈ ਭਗਤਿ ਕਿਨੇਹੀ ਹੋਇ ॥
इकु तिलु पिआरा विसरै भगति किनेही होइ ॥

यदि क्षण भर के लिए भी प्रियतम प्रभु विस्मृत हो जाए तो वह कैसी भक्ति हुई?

ਮਨੁ ਤਨੁ ਸੀਤਲੁ ਸਾਚ ਸਿਉ ਸਾਸੁ ਨ ਬਿਰਥਾ ਕੋਇ ॥੧॥
मनु तनु सीतलु साच सिउ सासु न बिरथा कोइ ॥१॥

सत्य सिमरन द्वारा ही मन-तन शीतल रहता है और कोई भी श्वास निष्फल नहीं जाता॥ १॥

ਮੇਰੇ ਮਨ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇ ॥
मेरे मन हरि का नामु धिआइ ॥

हे मेरे मन ! तुम भी प्रभु-नाम का सिमरन करो।

ਸਾਚੀ ਭਗਤਿ ਤਾ ਥੀਐ ਜਾ ਹਰਿ ਵਸੈ ਮਨਿ ਆਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
साची भगति ता थीऐ जा हरि वसै मनि आइ ॥१॥ रहाउ ॥

सत्य भक्ति तभी होती है, जब हरि-प्रभु मन में आकर बस जाए॥ १॥ रहाउ॥

ਸਹਜੇ ਖੇਤੀ ਰਾਹੀਐ ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਬੀਜੁ ਪਾਇ ॥
सहजे खेती राहीऐ सचु नामु बीजु पाइ ॥

सहजावस्था में स्थिर होकर हृदय-रूपी खेत में सत्य नाम का बीज डाल कर खेती बोई जाए

ਖੇਤੀ ਜੰਮੀ ਅਗਲੀ ਮਨੂਆ ਰਜਾ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥
खेती जंमी अगली मनूआ रजा सहजि सुभाइ ॥

तो शुभगुण रूपी खेती बहुत पैदा होती है, अर्थात्- फसल देख कर मन स्वाभाविक ही तृप्त हो जाता है।

ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਹੈ ਜਿਤੁ ਪੀਤੈ ਤਿਖ ਜਾਇ ॥
गुर का सबदु अंम्रितु है जितु पीतै तिख जाइ ॥

गुरु का उपदेश अमृत रूप है, जिसका पान करने से माया की तृष्णा बुझ जाती है।

ਇਹੁ ਮਨੁ ਸਾਚਾ ਸਚਿ ਰਤਾ ਸਚੇ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥੨॥
इहु मनु साचा सचि रता सचे रहिआ समाइ ॥२॥

जिस गुरुमुख जीव का यह सत्य मन सत्य नाम में लीन है, वह सत्य-स्वरूप परमात्मा में समा गया है ॥२॥

ਆਖਣੁ ਵੇਖਣੁ ਬੋਲਣਾ ਸਬਦੇ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
आखणु वेखणु बोलणा सबदे रहिआ समाइ ॥

उनका स्वयं कुछ बोलना, कहना व देखना आदि शब्द गुरु-वाणी में ही समाया होता है।

ਬਾਣੀ ਵਜੀ ਚਹੁ ਜੁਗੀ ਸਚੋ ਸਚੁ ਸੁਣਾਇ ॥
बाणी वजी चहु जुगी सचो सचु सुणाइ ॥

उनके वचन चार-युगों में विख्यात हो जाते हैं, क्योंकि वे पूर्ण रूप से सत्य पर आधारित होते हैं।

ਹਉਮੈ ਮੇਰਾ ਰਹਿ ਗਇਆ ਸਚੈ ਲਇਆ ਮਿਲਾਇ ॥
हउमै मेरा रहि गइआ सचै लइआ मिलाइ ॥

जीव का अहंकार व अहंभाव समाप्त हो जाता है और सत्य प्रभु उन्हें स्वयं में मिला लेता है।

ਤਿਨ ਕਉ ਮਹਲੁ ਹਦੂਰਿ ਹੈ ਜੋ ਸਚਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥੩॥
तिन कउ महलु हदूरि है जो सचि रहे लिव लाइ ॥३॥

जो जीव सत्य-स्वरूप में लीन हैं, उन्हें परमात्मा का स्वरूप प्रत्यक्ष दिखाई देता है ॥ ३॥

ਨਦਰੀ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ਵਿਣੁ ਕਰਮਾ ਪਾਇਆ ਨ ਜਾਇ ॥
नदरी नामु धिआईऐ विणु करमा पाइआ न जाइ ॥

परमात्मा की कृपा-दृष्टि से ही परमात्मा का नाम-सिमरन किया जा सकता है, बिना सद्कर्मों के नाम-सिमरन को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ਸਤਸੰਗਤਿ ਲਹੈ ਸਤਗੁਰੁ ਭੇਟੈ ਜਿਸੁ ਆਇ ॥
पूरै भागि सतसंगति लहै सतगुरु भेटै जिसु आइ ॥

जिस जीव को सौभाग्य से सत्संगति मिलती है, उसे सतगुरु आकर मिलते हैं।

ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੇ ਰਤਿਆ ਦੁਖੁ ਬਿਖਿਆ ਵਿਚਹੁ ਜਾਇ ॥
अनदिनु नामे रतिआ दुखु बिखिआ विचहु जाइ ॥

प्रतिदिन नाम में अनुरक्त होने पर हृदय में से विषय-विकारों का दुख दूर हो जाता है।

ਨਾਨਕ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵੜਾ ਨਾਮੇ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥੪॥੨੨॥੫੫॥
नानक सबदि मिलावड़ा नामे नामि समाइ ॥४॥२२॥५५॥

नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु के उपदेश द्वारा ही जीव का परमात्मा से मिलन होता है तथा वह नाम-सिमरन में लीन रहता है ॥ ४ ॥ २२ ॥ ५५ ॥

ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੩ ॥
सिरीरागु महला ३ ॥

श्रीरागु महला ३ ॥

ਆਪਣਾ ਭਉ ਤਿਨ ਪਾਇਓਨੁ ਜਿਨ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਬੀਚਾਰਿ ॥
आपणा भउ तिन पाइओनु जिन गुर का सबदु बीचारि ॥

जिन्होंने गुरु के उपदेश का मनन किया है, परमेश्वर ने उनके मन में अपना भय डाला है।

ਸਤਸੰਗਤੀ ਸਦਾ ਮਿਲਿ ਰਹੇ ਸਚੇ ਕੇ ਗੁਣ ਸਾਰਿ ॥
सतसंगती सदा मिलि रहे सचे के गुण सारि ॥

वे व्यक्ति प्रायः सत्संगति में मिले रहते हैं तथा सत्य परमात्मा के गुणों को ग्रहण करते हैं।

ਦੁਬਿਧਾ ਮੈਲੁ ਚੁਕਾਈਅਨੁ ਹਰਿ ਰਾਖਿਆ ਉਰ ਧਾਰਿ ॥
दुबिधा मैलु चुकाईअनु हरि राखिआ उर धारि ॥

परमात्मा ने उनके हृदय में से दुविधा की मैल को दूर कर दिया है तथा ऐसे व्यक्ति परमात्मा के नाम को हृदय में धारण करके रखते हैं।

ਸਚੀ ਬਾਣੀ ਸਚੁ ਮਨਿ ਸਚੇ ਨਾਲਿ ਪਿਆਰੁ ॥੧॥
सची बाणी सचु मनि सचे नालि पिआरु ॥१॥

गुरु का सत्य उपदेश उनके मन में बस जाता है और उस सत्यस्वरूप परमात्मा के साथ उनका प्रेम हो जाता है॥ १॥

ਮਨ ਮੇਰੇ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਭਰ ਨਾਲਿ ॥
मन मेरे हउमै मैलु भर नालि ॥

हे मेरे मन ! यह जीव अहंकार रूपी मैल से भरा हुआ है।

ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਸਦਾ ਸੋਹਣਾ ਸਬਦਿ ਸਵਾਰਣਹਾਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
हरि निरमलु सदा सोहणा सबदि सवारणहारु ॥१॥ रहाउ ॥

परमात्मा इस मैल से रहित है और वह पवित्र व सुंदर है, परमात्मा पवित्र जीवों को ही गुरु-उपदेश से जोड़ कर संवारने वाला है॥ १॥ रहाउ॥

ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਮਨੁ ਮੋਹਿਆ ਪ੍ਰਭਿ ਆਪੇ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥
सचै सबदि मनु मोहिआ प्रभि आपे लए मिलाइ ॥

गुरु के सत्य उपदेश से जिस जीव का मन मोहित हो गया, उसे प्रभु ने स्वयं ही अपने स्वरूप में मिला लिया।

ਅਨਦਿਨੁ ਨਾਮੇ ਰਤਿਆ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਸਮਾਇ ॥
अनदिनु नामे रतिआ जोती जोति समाइ ॥

रात-दिन नाम सिमरन में लीन रहने से उनकी ज्योति प्रभु की ज्योति में समा जाती है।

ਜੋਤੀ ਹੂ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਪਦਾ ਬਿਨੁ ਸਤਗੁਰ ਬੂਝ ਨ ਪਾਇ ॥
जोती हू प्रभु जापदा बिनु सतगुर बूझ न पाइ ॥

अपने अंतर्मन के प्रकाश द्वारा ही परमात्मा की पहचान होती है, किन्तु सतगुरु के बिना ऐसा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है।

ਜਿਨ ਕਉ ਪੂਰਬਿ ਲਿਖਿਆ ਸਤਗੁਰੁ ਭੇਟਿਆ ਤਿਨ ਆਇ ॥੨॥
जिन कउ पूरबि लिखिआ सतगुरु भेटिआ तिन आइ ॥२॥

जिनके भाग्य में पूर्व काल से ही लिखा है, वे गुरु को आकर मिल गए ॥ २॥

ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਸਭ ਡੁਮਣੀ ਦੂਜੈ ਭਾਇ ਖੁਆਇ ॥
विणु नावै सभ डुमणी दूजै भाइ खुआइ ॥

नाम-साधना के बिना समस्त जीव द्विचितापन हो रहे हैं और द्वैत-भाव में नष्ट हो रहे हैं।

ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਘੜੀ ਨ ਜੀਵਦੀ ਦੁਖੀ ਰੈਣਿ ਵਿਹਾਇ ॥
तिसु बिनु घड़ी न जीवदी दुखी रैणि विहाइ ॥

उस परमात्मा के बिना एक क्षण भी सुख के साथ नहीं बिताया जा सकता दु:ख में ही रात व्यतीत होती है।

ਭਰਮਿ ਭੁਲਾਣਾ ਅੰਧੁਲਾ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਇ ॥
भरमि भुलाणा अंधुला फिरि फिरि आवै जाइ ॥

अहं में भूला हुआ अज्ञानी जीव आवागमन के चक्र में भटकता है।

ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਣੀ ਆਪੇ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥੩॥
नदरि करे प्रभु आपणी आपे लए मिलाइ ॥३॥

परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि करे, तो अपने साथ मिला लेता है॥ ३॥


सूचकांक (1 - 1430)
जप पृष्ठ: 1 - 8
सो दर पृष्ठ: 8 - 10
सो पुरख पृष्ठ: 10 - 12
सोहला पृष्ठ: 12 - 13
सिरी राग पृष्ठ: 14 - 93
राग माझ पृष्ठ: 94 - 150
राग गउड़ी पृष्ठ: 151 - 346
राग आसा पृष्ठ: 347 - 488
राग गूजरी पृष्ठ: 489 - 526
राग देवगणधारी पृष्ठ: 527 - 536
राग बिहागड़ा पृष्ठ: 537 - 556
राग वढ़हंस पृष्ठ: 557 - 594
राग सोरठ पृष्ठ: 595 - 659
राग धनसारी पृष्ठ: 660 - 695
राग जैतसरी पृष्ठ: 696 - 710
राग तोडी पृष्ठ: 711 - 718
राग बैराडी पृष्ठ: 719 - 720
राग तिलंग पृष्ठ: 721 - 727
राग सूही पृष्ठ: 728 - 794
राग बिलावल पृष्ठ: 795 - 858
राग गोंड पृष्ठ: 859 - 875
राग रामकली पृष्ठ: 876 - 974
राग नट नारायण पृष्ठ: 975 - 983
राग माली पृष्ठ: 984 - 988
राग मारू पृष्ठ: 989 - 1106
राग तुखारी पृष्ठ: 1107 - 1117
राग केदारा पृष्ठ: 1118 - 1124
राग भैरौ पृष्ठ: 1125 - 1167
राग वसंत पृष्ठ: 1168 - 1196
राग सारंगस पृष्ठ: 1197 - 1253
राग मलार पृष्ठ: 1254 - 1293
राग कानडा पृष्ठ: 1294 - 1318
राग कल्याण पृष्ठ: 1319 - 1326
राग प्रभाती पृष्ठ: 1327 - 1351
राग जयवंती पृष्ठ: 1352 - 1359
सलोक सहस्रकृति पृष्ठ: 1353 - 1360
गाथा महला 5 पृष्ठ: 1360 - 1361
फुनहे महला 5 पृष्ठ: 1361 - 1663
चौबोले महला 5 पृष्ठ: 1363 - 1364
सलोक भगत कबीर जिओ के पृष्ठ: 1364 - 1377
सलोक सेख फरीद के पृष्ठ: 1377 - 1385
सवईए स्री मुखबाक महला 5 पृष्ठ: 1385 - 1389
सवईए महले पहिले के पृष्ठ: 1389 - 1390
सवईए महले दूजे के पृष्ठ: 1391 - 1392
सवईए महले तीजे के पृष्ठ: 1392 - 1396
सवईए महले चौथे के पृष्ठ: 1396 - 1406
सवईए महले पंजवे के पृष्ठ: 1406 - 1409
सलोक वारा ते वधीक पृष्ठ: 1410 - 1426
सलोक महला 9 पृष्ठ: 1426 - 1429
मुंदावणी महला 5 पृष्ठ: 1429 - 1429
रागमाला पृष्ठ: 1430 - 1430
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