स्वेच्छाचारी जीव का जन्म व्यर्थ चला जाता है, ऐसे में वह आगे परलोक में जाकर क्या मुंह दिखाएगा ? ॥ ३॥
वह परमात्मा ही सर्वस्व है, यह बात अहंकारी जीव द्वारा नहीं कही जा सकती।
गुरु का उपदेश पहचान कर ही कष्टदायक अहंकार को हृदय में से निकाला जा सकता है।
मायके रूपी इस लोक में तुम्हारा सदा के दिए वास नहीं हो सकता॥ ३॥
नानक देव जी कथन करते हैं कि सत्य स्वरूप परमात्मा के द्वार पर वे जीव ही सत्य धारण करते हैं और मैं उन पर बलिहारी जाता हूँ ॥४॥२१॥५४॥
श्रीरागु महला ३ ॥
हे मेरे मन! यदि तुम प्रभु का सिमरन करने के लिए उपयुक्त समय को ढूंढते रहे तो तुम देखोगे कि उसकी भक्ति के लिए कोई भी समय निर्धारित नहीं है। भाव यह सब व्यर्थ है क्यूंकि प्रभु का सिमरन करने के लिए किसी विशेष अवसर या समय की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे तो सभी समय स्वीकार्य हैं ।
दिन-रात परमात्मा के नाम में विलीन रहने वाले जीव की शोभा होती है।
यदि क्षण भर के लिए भी प्रियतम प्रभु विस्मृत हो जाए तो वह कैसी भक्ति हुई?
सत्य सिमरन द्वारा ही मन-तन शीतल रहता है और कोई भी श्वास निष्फल नहीं जाता॥ १॥
हे मेरे मन ! तुम भी प्रभु-नाम का सिमरन करो।
सत्य भक्ति तभी होती है, जब हरि-प्रभु मन में आकर बस जाए॥ १॥ रहाउ॥
सहजावस्था में स्थिर होकर हृदय-रूपी खेत में सत्य नाम का बीज डाल कर खेती बोई जाए
तो शुभगुण रूपी खेती बहुत पैदा होती है, अर्थात्- फसल देख कर मन स्वाभाविक ही तृप्त हो जाता है।
गुरु का उपदेश अमृत रूप है, जिसका पान करने से माया की तृष्णा बुझ जाती है।
जिस गुरुमुख जीव का यह सत्य मन सत्य नाम में लीन है, वह सत्य-स्वरूप परमात्मा में समा गया है ॥२॥
उनका स्वयं कुछ बोलना, कहना व देखना आदि शब्द गुरु-वाणी में ही समाया होता है।
उनके वचन चार-युगों में विख्यात हो जाते हैं, क्योंकि वे पूर्ण रूप से सत्य पर आधारित होते हैं।
जीव का अहंकार व अहंभाव समाप्त हो जाता है और सत्य प्रभु उन्हें स्वयं में मिला लेता है।
जो जीव सत्य-स्वरूप में लीन हैं, उन्हें परमात्मा का स्वरूप प्रत्यक्ष दिखाई देता है ॥ ३॥
परमात्मा की कृपा-दृष्टि से ही परमात्मा का नाम-सिमरन किया जा सकता है, बिना सद्कर्मों के नाम-सिमरन को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
जिस जीव को सौभाग्य से सत्संगति मिलती है, उसे सतगुरु आकर मिलते हैं।
प्रतिदिन नाम में अनुरक्त होने पर हृदय में से विषय-विकारों का दुख दूर हो जाता है।
नानक देव जी कथन करते हैं कि गुरु के उपदेश द्वारा ही जीव का परमात्मा से मिलन होता है तथा वह नाम-सिमरन में लीन रहता है ॥ ४ ॥ २२ ॥ ५५ ॥
श्रीरागु महला ३ ॥
जिन्होंने गुरु के उपदेश का मनन किया है, परमेश्वर ने उनके मन में अपना भय डाला है।
वे व्यक्ति प्रायः सत्संगति में मिले रहते हैं तथा सत्य परमात्मा के गुणों को ग्रहण करते हैं।
परमात्मा ने उनके हृदय में से दुविधा की मैल को दूर कर दिया है तथा ऐसे व्यक्ति परमात्मा के नाम को हृदय में धारण करके रखते हैं।
गुरु का सत्य उपदेश उनके मन में बस जाता है और उस सत्यस्वरूप परमात्मा के साथ उनका प्रेम हो जाता है॥ १॥
हे मेरे मन ! यह जीव अहंकार रूपी मैल से भरा हुआ है।
परमात्मा इस मैल से रहित है और वह पवित्र व सुंदर है, परमात्मा पवित्र जीवों को ही गुरु-उपदेश से जोड़ कर संवारने वाला है॥ १॥ रहाउ॥
गुरु के सत्य उपदेश से जिस जीव का मन मोहित हो गया, उसे प्रभु ने स्वयं ही अपने स्वरूप में मिला लिया।
रात-दिन नाम सिमरन में लीन रहने से उनकी ज्योति प्रभु की ज्योति में समा जाती है।
अपने अंतर्मन के प्रकाश द्वारा ही परमात्मा की पहचान होती है, किन्तु सतगुरु के बिना ऐसा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है।
जिनके भाग्य में पूर्व काल से ही लिखा है, वे गुरु को आकर मिल गए ॥ २॥
नाम-साधना के बिना समस्त जीव द्विचितापन हो रहे हैं और द्वैत-भाव में नष्ट हो रहे हैं।
उस परमात्मा के बिना एक क्षण भी सुख के साथ नहीं बिताया जा सकता दु:ख में ही रात व्यतीत होती है।
अहं में भूला हुआ अज्ञानी जीव आवागमन के चक्र में भटकता है।
परमात्मा अपनी कृपा-दृष्टि करे, तो अपने साथ मिला लेता है॥ ३॥