अंतर्मन का रहस्य तभी जाना जा सकता है, जब सभी शंकाओं को दूर करके गुरु से मिला जाए।
मरणोपरांत जिस यम घर में जाना है, क्यों न जीवित रह कर नाम सिमरन द्वारा उस यम को ही मार लें।
गुरु के उपदेश से ही परब्रह्म की अनहद वाणी (मनभावन निर्मोही दिव्य संगीत) श्रवण करने को मिलती है॥ २॥
जब यह अनहद वाणी प्राप्त होती है तो अभिमान का विनाश हो जाता है।
जो अपने सतगुरु की सेवा करते हैं, उन पर सदैव बलिहारी जाएँ।
जिनके मुँह में हरिनाम का वास होता है, उसे परमात्मा की सभा में ले जाकर प्रतिष्ठा के परिधान से सुशोभित किया जाता है॥ ३॥
जहाँ कहीं भी मेरी दृष्टि पड़ती है, वहाँ पर शिव (चेतन) और शक्ति (प्रवृति) का संयोग है।
त्रिगुणी (तम,रज,सत्त्व) आत्मिक माया से यह शरीर बंधा हुआ है, जो इस संसार में आया है, उसने इनके साथ ही खेलना है।
जो गुरु से विमुख हैं, वह परमात्मा से बिछुड़ कर दु:खी होते हैं तथा मनमुख (स्वेच्छाचारी) मिलाप की अवस्था को प्राप्त नहीं करते॥ ४॥
यदि माया में लिप्त रहने वाला मन सत्य स्वरूप परमात्मा के भय में लीन हो जाए तो वह अपने वास्तविक गृह में निवास प्राप्त कर लेता है।
तब वह जीव ज्ञान द्वारा सर्वोच्च आध्यात्मिक ज्ञान के सार का आनंद लेता है; उसे फिर कभी सांसारिक वस्तुओं की तृष्णा नहीं रहती।
गुरु नानक जी कथन करते हैं कि इस चंचल मन को मोह-माया से दूर करके परमात्मा से मिलाप करो फ़िर तुझे कोई दु:ख-संताप नहीं सताएगा॥ ५॥ १८॥
सिरीरागु महला १ ॥
यह मन विमूढ़ व लोभी है, जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए लालायित है।
शाक्त (शक्ति उपासक लोभी जीवों) का मन गुरु-शब्द (प्रभु-नाम) में लिवलीन नहीं होता, इसलिए दुर्मति वाले आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं।
यदि श्रेष्ठ सतगुरु की प्राप्ति हो जाए तो शुभ गुणों का कोष (परमात्मा) प्राप्त हो जाता है॥ १॥
हे मेरे चंचल मन ! तू अभिमान और गर्व का त्याग कर दे।
गुरु को हरि (जो सुखों का सरोवर है) का रूप मानकर उसकी सेवा कर, तभी तुम परमात्मा के दरबार में सम्मान प्राप्त करोगे॥ १॥ रहाउ॥
गुरु के उपदेशानुसार दिन-रात राम-नाम का सिमरन करो और इस हरि-नाम की पहचान करो।
हरि-नाम में ही सभी सुखों का भोग करने को मिलता है, लेकिन ऐसा ज्ञान संत-सभा (सत्संग) में ही प्राप्त होता है।
जिनको सत्संगति में सतगुरु ने हरि का नाम प्रदान किया है, उन्होंने नित्य दिन-रात इस हरि प्रभु की उपासना की है॥ २॥
जो कुत्ते भाव लोभी पुरुष मिथ्या कमाई करते हैं, अर्थात् झूठ बोलते हैं, गुरु की निन्दा करना उनका आहार बन जाता है।
इसके फलस्वरूप वह भ्रम में विस्मृत हो कर बहुत कष्ट सहन करते हैं और यमों के दण्ड से नष्ट हो जाते हैं।
मनमुख जीव कभी आत्मिक सुख प्राप्त नहीं करते, केवल गुरु के उन्मुख प्राणी ही सर्वसुखों को प्राप्त करते हैं।॥ ३॥
इहलोक में मनमुख जीव माया के धंधों में लगे रहते हैं, जो असत्य कर्म हैं, लेकिन परमात्मा के दर पर सत्य कर्मों का लेखा ही स्वीकृत है।
जो गुरु की सेवा करता है, वह हरि का मित्र है, उसकी करनी श्रेष्ठ है।
गुरु नानक जी कहते हैं कि जिनके मस्तिष्क पर सत्य कर्मों का लेखा लिखा है, उनको प्रभु का नाम कभी विस्मृत नहीं होता ॥ ४॥ १९ ॥
सिरीरागु महला १ ॥
अल्पतम समय के लिए भी यदि प्रियतम प्रभु विस्मृत हो जाए तो मन में बहुत बड़ा रोग अनुभव होता है, अर्थात् पश्चाताप होता है।
जब मन में हरि का वास ही नहीं होगा तो उसके दरबार में प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करेगा।
गुरु से मिलाप करके आत्मिक सुखों की प्राप्ति होती है, प्रभु का यशोगान करके तृष्णाग्नि मिट जाती है ॥ ५ ॥
हे मन ! दिन-रात हरि-गुणों का स्मरण कर।
जिनको क्षण-मात्र भी प्रभु का नाम विस्मृत नहीं होता। ऐसे लोग दुर्लभ ही इस संसार में होते हैं ॥ १ ॥ रहाउ ॥
यदि जीवात्मा को परमात्मा की ज्योति मे विलीन कर दिया जाये और निज चेतना को दिव्य चेतना मे संलिप्त कर दिया जाए
तो मन से हिंसा, अभिमान, शोक, शंका और चंचलता आदि कृतियाँ समाप्त हो जाएँगी और साथ ही संशय व शोक भी मिट जाएँगे।
जिस गुरमुख के मन में हरि का वास है, उसे सतगुरु संयोगवश अपने साथ मिला लेते हैं॥ २ ॥
यदि बुद्धि रूपी स्त्री को निष्काम कर्मों द्वारा शुद्ध करके गुरु उपदेश का श्रेष्ठतम भोग भोगने को तत्पर किया जाए।
सभी नश्वर पदार्थों की कामना का त्याग किया जाए
तो वह गुरमुख सदैव गुरु उपदेश के कारण सुहागन जीवन व्यतीत कर सकता है और अपने प्रभु-पति के साथ आनंद प्राप्त कर सकता है। ३ ॥