वह एकाग्र मन से आकाश में एक स्थान पर स्थिर था और उसके अंग अत्यंत श्वेत और सुन्दर थे॥
उसने अपनी आँखों से किसी और को नहीं देखा।
उसका मन मछली में ही लीन था और वह किसी और को नहीं देख रहा था।367.
महा मुनि वहाँ गये और स्नान किया।
तब गुरु जी ने जाकर स्नान किया और उठकर भगवान का ध्यान किया।
मछली का वह दुश्मन इतने लंबे समय से वहां से नहीं गया था।
परंतु मछली का वह शत्रु सूर्यास्त तक भी अपना ध्यान मछली पर ही लगाए रहा।368.
मछली काटने वाला (दुधिरा) वहीं छटपटाता रहा।
वह आकाश में स्थिर रहा और सूर्यास्त के बारे में भी नहीं सोचा
उसे देखकर महर्षि मुनि मोहित हो गये।
उन्हें देखकर महर्षि ने मौन धारण कर लिया और उन्हें सत्रहवें गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया।369.
मत्स्य पक्षी को सत्रहवें गुरु के रूप में अपनाने का वर्णन समाप्त।
अब एक शिकारी को अठारहवें गुरु के रूप में अपनाने का वर्णन शुरू होता है
टोटक छंद
स्नान कर गोबिंद के गुणों का कीर्तन करना,
स्नान करके और भगवान की स्तुति गाकर ऋषि वन में चले गए।
जहाँ साल, तमाल और मधल को ईटों और लकड़ियों से सजाया जाता था।
जहाँ साल और तमाल के वृक्ष थे और उन वृक्षों की घनी छाया में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच सकता था।370.
वहाँ उसने एक बड़ा तालाब देखा।
ऋषि वहां योगाभ्यास करने गये थे।
वहाँ (दत्त मुनि ने) एक शिकारी को पत्र छिपाते देखा।
वहाँ ऋषि ने एक तालाब बनाया और वृक्षों के बीच सोने के समान शोभायमान एक शिकारी को देखा।371.
उसके हाथ में धनुष पर एक थरथराता हुआ बाण था।
उसके हाथ में सफेद रंग का धनुष और बाण था, जिससे उसने अनेक हिरणों को मार डाला था।
(दत्त) सेवकों का पूरा दल साथ लेकर आये
ऋषिगण अपनी प्रजा सहित वन के उस ओर से निकले।372.
(उसके) सुनहरे अंग चमक रहे थे,
सोने की महिमा वाले कई व्यक्ति,
रात्रि में ऋषि के साथ अनेक सेवक भी थे।
ऋषि दत्त के साथ गये और उन सबने उस शिकारी को देखा।373.
ऋषि जोर-जोर से (गिद्धों की तरह) मंत्रोच्चार करते थे।
उन ऋषियों ने उस स्थान पर भयंकर गर्जना और कोलाहल मचा दिया।
मुनि लोग जगह-जगह जाकर पानी पी रहे थे।
वे विभिन्न स्थानों पर बिखरकर भोजन और पेय लेने लगे।374.
(ऋषि के) शरीर पर प्रकाशमान विभूति थी।
उन ऋषियों ने अपने श्वेत शरीर पर भस्म लगाई, विभिन्न आसनों का अभ्यास किया और
निउली सारा काम करती थी।
चारों दिशाओं में भ्रमण करते हुए न्योली (आँतों की शुद्धि) आदि अनेक कर्म किये।375.
(उनका) शरीर कामदेव के समान अखंडित एवं अक्षत था।
वे वासना के तत्व से पूरी तरह मुक्त होकर विभिन्न साधनाओं में लीन हो गए
जटाएँ सुन्दर थीं, मानो वे शिव हों। (लगता था)
उनकी जटाएँ शिव की जटाओं का स्वरूप प्रतीत होती थीं।376.
(जटाएँ) मानो शिव के सिर से निकल रही गंगा की धाराओं की तरह फैल रही हों।
उनकी योगात्मक जटाएँ शिव से निकलती गंगा की लहरों की तरह लहरा रही थीं
सभी तपस्वियों ने (दत्त सहित) घोर तपस्या की।
उन्होंने पूर्ववर्ती तपस्वियों की भाँति अनेक प्रकार की तपस्याएँ कीं।377.
वेदों में योग के अनेक साधनों का उल्लेख है,
श्रुति (वेद) में जितनी भी विविध साधनाएँ वर्णित हैं, वे सभी इन ऋषियों द्वारा ही सम्पन्न की गयीं।