सच्चे गुरु की कृपा से प्राप्त नाम का ध्यान और उसमें लीन होने से, तथा मेरे-उसके की भावना को त्यागने से मनुष्य गुरु का सेवक बन जाता है। ऐसा सेवक सर्वत्र एक ही प्रभु की उपस्थिति को स्वीकार करता है।
जैसे सब जंगलों में एक ही अग्नि विद्यमान रहती है, एक ही धागे में भिन्न-भिन्न मनके पिरोये जाते हैं, जैसे सब रंग और जाति की गायें एक ही रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार सच्चे गुरु का दास एक ही प्रभु के अस्तित्व का ज्ञान और बुद्धि प्राप्त कर लेता है।
जैसे आँखों से देखा हुआ, कानों से सुना हुआ और जीभ से कहा हुआ सब कुछ मन तक पहुँचता है, उसी प्रकार गुरु का दास सब प्राणियों में एक ही प्रभु को देखता है और उसे अपने मन में बसा लेता है।
सिख का अपने गुरु के साथ मिलन उसे बार-बार प्रभु का नाम लेने के लिए प्रेरित करता है और ताने-बाने की तरह उसमें समाहित हो जाता है। जब उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश में विलीन हो जाता है, तो वह भी दिव्य प्रकाश का रूप प्राप्त कर लेता है। (108)