मन और ईश्वरीय वचन के संयोग से मेरा-तेरा का भेद दूर करके मनुष्य गुरु का विनम्र दास बन जाता है। वह निरंतर गुरु के नाम का स्मरण करके अपने वर्तमान को सफल बनाता है।
वह अपना मन भगवान के नाम पर केन्द्रित रखता है; गुरु की शिक्षाओं के अनुसार जीवन जीता है, तथा सभी घटनाओं को ईश्वर की इच्छा और आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करता है।
गृहस्थ जीवन में रहते हुए भगवान के नाम के ध्यान में लीन और उनके प्रेम में लीन भक्त सदैव उनके नाम के अमृत का आनंद लेता है।
ऐसा गुरु-दास जो अपने मन को भगवान् में एकाग्र करके कण-कण में व्याप्त अविनाशी और नित्य स्थिर भगवान् को देखता है, वह उस शक्ति को नमस्कार करता है और उसे नमस्कार करता है जो समस्त उत्पत्तियों का कारण है। (१०६)