जब पूर्ण प्रभु ही सबमें पूर्णतः प्रकट हैं और उनके समान कोई नहीं है, तो फिर उनके असंख्य रूप कैसे बनाये जा सकते हैं और मंदिरों में कैसे स्थापित किये जा सकते हैं?
जब वे स्वयं ही सबमें व्याप्त हैं, स्वयं ही सुनते, बोलते और देखते हैं, तो फिर वे मन्दिरों की मूर्तियों में बोलते, सुनते और देखते क्यों नहीं दिखते?
हर घर में कई तरह के बर्तन होते हैं, लेकिन वे एक ही सामग्री से बने होते हैं। उस सामग्री की तरह, भगवान का प्रकाश सभी में विद्यमान है। लेकिन वह तेज विभिन्न मंदिरों में स्थापित मूर्तियों में अपनी पूरी भव्यता में क्यों नहीं दिखता?
सच्चे गुरु पूर्ण और सिद्ध भगवान का स्वरूप हैं, वह प्रकाश है जो निरपेक्ष और पारलौकिक दोनों रूपों में विद्यमान है। वही तेजोमय भगवान सच्चे गुरु के रूप में स्वयं पूजित हो रहे हैं। (४६२)