अनुष्ठानिक पूजा-पाठ करना, देवताओं को प्रसाद चढ़ाना, अनेक प्रकार की पूजा-अर्चना करना, तपस्या एवं कठोर अनुशासन में जीवन व्यतीत करना, दान-पुण्य करना;
रेगिस्तानों, जलाशयों, पर्वतों, तीर्थस्थानों और बंजर भूमि में घूमते हुए, हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों के पास पहुँचकर प्राण त्यागना;
वेदों का पाठ करना, संगीत वाद्यों के साथ गायन करना, योग के कठिन अभ्यास करना तथा योग अनुशासन के लाखों चिंतन में लिप्त रहना;
इन्द्रियों को विकारों से रोकना तथा अन्य कठिन योगाभ्यासों का अभ्यास करना, यह सब गुरु-चिन्तित व्यक्ति महात्माओं की संगति तथा सद्गुरु की शरण में त्याग देता है। ये सब अभ्यास तुच्छ तथा व्यर्थ हैं। (255)