जिस प्रकार अनाज को शुरू से ही पीटा और कुचला जाता है और अपनी पहचान खो देने के बाद वह पूरे संसार का आधार और पोषण बन जाता है।
जिस प्रकार कपास ओटने और कताई के कष्ट को सहते हुए अपनी पहचान खो देता है और कपड़ा बन जाता है तथा दुनिया के लोगों के शरीर को ढकता है।
जिस प्रकार जल अपनी पहचान खोकर सभी रंगों और शरीरों के साथ एक हो जाता है, उसी प्रकार अपनी पहचान नष्ट करने का यह स्वभाव उसे दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम बनाता है।
इसी प्रकार जो लोग सच्चे गुरु से दीक्षा लेकर नाम सिमरन का अभ्यास करके अपने मन को वश में कर लेते हैं, वे श्रेष्ठ व्यक्ति बन जाते हैं। वे गुरु से जुड़कर सारे संसार का उद्धार कर देते हैं। (581)