सच्चे गुरु की शरण में जाने और उनकी शिक्षा के अनुसार अपने मन, वचन और कर्म को ढालने के कारण, गुरु-चेतन व्यक्ति तीनों लोकों की घटनाओं को सहज रूप से जान लेता है। वह अपने भीतर विराजमान सच्चे प्रभु को पहचान लेता है।
कर्म, मन और वचन के सामंजस्य से मन के विचार, वचनों का उच्चारण और किए गए कार्य प्रभावित होते हैं।
जैसे गुड़, गन्ना और मधुका पुष्पों से मदिरा बनाई जाती है, वैसे ही गुरु-चेतन व्यक्ति को गुरु के उपदेशों का ज्ञान, उन उपदेशों पर ध्यान (मन की एकाग्रता) तथा शुद्ध कर्म करने से नाम-अमृत की अद्वितीय धारा प्राप्त होती है।
गुरु-चेतन व्यक्ति भगवान के नाम रूपी प्रेममय अमृत का पान करके अपने आपको तृप्त कर लेता है और सच्चे गुरु के दिव्य शब्द से जुड़कर वह समभाव में रहता है। (४८)