पूर्णिमा का प्रकाश समस्त संसार को शीतल और सुखदायक लगता है, परन्तु मेरे लिए (प्रियतम के वियोग में दुःखी) वह जलती हुई लकड़ी के समान है।
विरह की यह पीड़ा शरीर में असंख्य ज्वालाएँ उत्पन्न कर रही है। विरह की आहें नाग के फुंफकारने जैसी हैं,
इस प्रकार विरह की अग्नि इतनी प्रबल है कि उसके स्पर्श से पत्थर भी चूर-चूर हो जाते हैं। बहुत प्रयत्न करने पर भी मेरी छाती चूर-चूर हो रही है। (मैं विरह की पीड़ा अब और सहन नहीं कर सकता)।
प्रियतम प्रभु के वियोग ने जीवन और मृत्यु दोनों को ही बोझिल बना दिया है। मैंने जो प्रेम के वचन और प्रतिज्ञाएँ की थीं, उनका पालन करने में अवश्य ही कोई भूल की है, जिससे मेरा मानव जन्म कलंकित हो रहा है। (जीवन व्यर्थ जा रहा है) (573)