गुरु के दिव्य वचन को मन में आत्मसात करके तथा गुरु का विनम्र दास बनकर ही मनुष्य सच्चा शिष्य बनता है। वस्तुतः बालक के समान बुद्धि का स्वामी होने के कारण वह छल-कपट और मोह से मुक्त हो जाता है।
चूँकि उसकी चेतना भगवान के नाम में लीन रहती है, इसलिए उस पर स्तुति या अस्वीकृति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
सुगंध और दुर्गंध, विष या अमृत उसके लिए एक समान हैं, क्योंकि उसकी (भक्त की) चेतना उसी में लीन रहती है।
वह भले ही अच्छे या बुरे कामों में अपने हाथों का उपयोग करता हो, या अनादरपूर्ण मार्ग पर चलता हो, तो भी वह स्थिर और एकरूप रहता है। ऐसा भक्त कभी भी छल, कपट या बुरे कामों की भावना नहीं रखता। (107)