जिस प्रकार एक लेखाकार का मन सदैव सांसारिक मामलों का लेखा-जोखा रखने और लिखने में तल्लीन रहता है, वह भगवान की स्तुति लिखने पर ध्यान केन्द्रित नहीं करता।
चूँकि मन व्यापार और कारोबार में उलझा रहता है, इसलिए वह भगवान के नाम के ध्यान में लगना पसंद नहीं करता।
जैसे मनुष्य सोने और स्त्री के प्रेम से मोहित हो जाता है, वैसे ही वह साधु-समुदाय के प्रति अपने हृदय में एक क्षण के लिए भी उस प्रकार का प्रेम प्रदर्शित नहीं करता।
संसार के बंधनों और कामों में ही जीवन व्यतीत हो जाता है। जो व्यक्ति सच्चे गुरु की शिक्षाओं का पालन करने से वंचित रहता है, उसे इस संसार से विदा होने का समय आने पर पश्चाताप होता है। (234)