जब तक मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए या किसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर कर्म करता है, तब तक न तो उसके किए गए कर्म से कुछ प्राप्त होता है और न ही उसका कोई संकल्प फलित होता है।
जब तक मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहा, वह कहीं से भी राहत प्राप्त किए बिना दर-दर भटकता रहा।
जब तक मनुष्य सांसारिक वस्तुओं और सम्बन्धियों के मोह के वशीभूत होकर मैं, मेरा, मुझे और तेरा का बोझ ढोता रहा, तब तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर दुःखी होकर भटकता रहा।
सच्चे गुरु की शरण में आकर और उनके नाम-सिमरन का अभ्यास करके ही मनुष्य सभी सांसारिक प्रलोभनों से मुक्त हो सकता है, जिससे उसे आध्यात्मिक ऊंचाई, संतुलन और विनम्रता प्राप्त करने में मदद मिलती है। (428)