जैसे अविनाशी ईश्वर सबका आदि होने पर भी आदि से परे है; जैसे वह सबका अंत होने पर भी अंत से परे है; जैसे वह अथाह होने पर भी कल्पनीय सीमा से परे है, वैसे ही सच्चे गुरु की स्तुति भगवान के समान ही है।
जैसे अविनाशी ईश्वर माप से परे है, गिनती से परे है, धारणा से परे है, तौल से परे है, वैसे ही सच्चे गुरु की प्रशंसा भी है।
जिस प्रकार सर्वशक्तिमान ईश्वर असीम, अगम्य, इन्द्रियों की अनुभूति और मूल्यांकन से परे है, उसी प्रकार सच्चे गुरु की प्रशंसा भी है।
जैसे सर्वशक्तिमान ईश्वर अत्यन्त अद्भुत, विस्मयकारी और अत्यंत विचित्र है, वैसे ही सच्चे गुरु की प्रशंसा भी अत्यन्त विचित्र है। (७१)