नाम सिमरन के अभ्यास से गुरु-चेतन शिष्य अपने चंचल और चंचल मन को नियंत्रित करने में सक्षम होते हैं और तीव्र मछली जैसी गति के साथ अपनी चेतना को दशम द्वार (दसवें द्वार) में, इरहा, पिंगला और सुखमना के मिलन स्थल पर स्थापित करते हैं।
दशम द्वार में अपनी चेतना को विश्राम देते हुए वे भगवान के शाश्वत प्रकाश में उसी प्रकार विलीन हो जाते हैं, जैसे नदी समुद्र के जल में विलीन हो जाती है। वे नाम सिमरन की परमानंद अवस्था में रहते हैं और उनकी सारी रुचि और भक्ति बनी रहती है।
भगवान की दिव्य ज्योति में विलीन होकर वे मिलन की आनंदमय विद्युतीय चमक का आनंद लेते हैं। वे बिना बजाए संगीत की ध्वनि को जोर से और स्पष्ट रूप से सुनते हैं।
वे दशम द्वार में निरन्तर दिव्य अमृत का प्रवाह करते रहते हैं तथा साधकों को सभी फल और निधियाँ प्राप्त होती हैं। (५९)