कबित सव्ये भाई गुरदास जी

पृष्ठ - 117


ਸੁਪਨ ਚਰਿਤ੍ਰ ਚਿਤ੍ਰ ਜਾਗਤ ਨ ਦੇਖੀਅਤ ਤਾਰਕਾ ਮੰਡਲ ਪਰਭਾਤਿ ਨ ਦਿਖਾਈਐ ।
सुपन चरित्र चित्र जागत न देखीअत तारका मंडल परभाति न दिखाईऐ ।

जैसे स्वप्न की घटनाएं जागते हुए नहीं देखी जा सकतीं, जैसे सूर्योदय के बाद तारे दिखाई नहीं देते;

ਤਰਵਰ ਛਾਇਆ ਲਘੁ ਦੀਰਘ ਚਪਲ ਬਲ ਤੀਰਥ ਪੁਰਬ ਜਾਤ੍ਰਾ ਥਿਰ ਨ ਰਹਾਈਐ ।
तरवर छाइआ लघु दीरघ चपल बल तीरथ पुरब जात्रा थिर न रहाईऐ ।

जिस प्रकार सूर्य की किरणों के साथ वृक्ष की छाया का आकार बदलता रहता है, उसी प्रकार तीर्थों की यात्रा भी चिरस्थायी नहीं होती।

ਨਦੀ ਨਾਵ ਕੋ ਸੰਜੋਗ ਲੋਗ ਬਹੁਰਿਓ ਨ ਮਿਲੈ ਗੰਧ੍ਰਬ ਨਗਰ ਮ੍ਰਿਗ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਬਿਲਾਈਐ ।
नदी नाव को संजोग लोग बहुरिओ न मिलै गंध्रब नगर म्रिग त्रिसना बिलाईऐ ।

जैसे नाव में सवार सहयात्री पुनः साथ-साथ यात्रा नहीं कर पाते, जैसे मृगतृष्णा के कारण जल का होना या देवताओं का काल्पनिक निवास (अंतरिक्ष में) होना भ्रम है।

ਤੈਸੇ ਮਾਇਐ ਮੋਹ ਧ੍ਰੋਹ ਕੁਟੰਬ ਸਨੇਹ ਦੇਹ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦ ਸੁਰਤਿ ਲਿਵ ਲਾਈਐ ।੧੧੭।
तैसे माइऐ मोह ध्रोह कुटंब सनेह देह गुरमुखि सबद सुरति लिव लाईऐ ।११७।

इसी प्रकार गुरु-चेतन व्यक्ति धन, आसक्ति और शरीर-प्रेम को भ्रम मानता है और वह अपनी चेतना को गुरु के दिव्य वचन पर केन्द्रित रखता है। (117)