एक सिख का अपने गुरु के साथ मिलन और उनके साथ एक हो जाना एक पतिव्रता पत्नी के समान है जो दूसरों की इच्छा को त्याग कर एक पति की शरण में रहती है।
जो सिख एक सच्चे गुरु की शरण में अपना विश्वास रखता है, वह ज्योतिष या वेदों की आज्ञा पर निर्भर नहीं रहता, न ही वह किसी दिन/तारीख या नक्षत्र/ग्रहों की शुभता के बारे में अपने मन में कोई संदेह लाता है।
गुरु के पवित्र चरणों में लीन रहने वाला सिख शकुन-अपशकुन या देवी-देवताओं की सेवा के बारे में कुछ नहीं जानता। उसका सच्चे गुरु, निराकार प्रभु के स्वरूप के साथ ऐसा अटूट प्रेम होता है कि वह अपने हृदय में ईश्वर के दिव्य शब्द को बसाकर अपने गुरु के चरणों में लीन हो जाता है।
पिता गुरु विशेष गुणवान बच्चों की रक्षा करते हैं तथा उनका पालन-पोषण करते हैं। ऐसे सिखों को गुरु अपने जीवनकाल में ही सभी संस्कारों से मुक्त कर देते हैं तथा उनके मन में एक प्रभु की विचारधारा और विचार भर देते हैं। (448)