जैसे मन पराई स्त्री, पराया धन और पराई निन्दा के पीछे भागता है, वैसे ही वह सच्चे गुरु और सज्जनों की सभा की शरण में नहीं आता।
जिस प्रकार मन दूसरों की हीन, अनादरपूर्ण सेवा में लगा रहता है, उसी प्रकार वह सच्चे गुरु तथा साधु-समुदाय की भी सेवा नहीं करता।
जिस प्रकार मन सांसारिक कार्यों में उलझा रहता है, उसी प्रकार वह ईश्वर की भक्ति तथा धार्मिक संगति में भी संलग्न नहीं होता।
जैसे कुत्ता चक्की चाटने के लिए दौड़ता है, वैसे ही लोभी मनुष्य भी उसी के पीछे दौड़ता है, जिसके पास वह माया का मधुर लोभ देखता है। (235)