भगवान के नाम का निरंतर ध्यान करने से गुरु-चेतना वाला व्यक्ति द्वैत और जाति-भेद से दूर हो जाता है। वह स्वयं को पाँच विकारों (काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और मोह) की पकड़ से मुक्त कर लेता है और न ही वह स्वयं को तर्क-वितर्क में उलझाता है।
जिस प्रकार पारस पत्थर से स्पर्श कराने पर लोहा सोना बन जाता है, उसी प्रकार गुरु से मिलकर भक्त पवित्र और निर्मल हो जाता है।
शरीर के नौ द्वारों के सुखों पर विजय प्राप्त करके वह अपनी शक्तियों को दसवें द्वार पर रखता है, जहां दिव्य अमृत निरंतर प्रवाहित होता रहता है, जो उसे अन्य सभी सुखों से दूर कर देता है।
निश्चिंत रहें कि गुरु और शिष्य का मिलन शिष्य को ईश्वर का साक्षात्कार कराता है और वह वस्तुतः उन्हीं जैसा बन जाता है। तब उसका हृदय दिव्य संगीत में डूबा रहता है। (32)