कबित सव्ये भाई गुरदास जी

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ਪ੍ਰੇਮ ਰਸ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਿਧਾਨ ਪਾਨ ਪੂਰਨ ਹੋਇ ਪਰਮਦਭੁਤ ਗਤਿ ਆਤਮ ਤਰੰਗ ਹੈ ।
प्रेम रस अंम्रित निधान पान पूरन होइ परमदभुत गति आतम तरंग है ।

गुरु-चेतन सिख अमृत-रूपी नाम का प्रेममय अमृत पीकर पूर्ण तृप्त महसूस करता है। वह अपने भीतर आध्यात्मिक परमानंद की विचित्र और आश्चर्यजनक तरंगों का अनुभव करता है।

ਇਤ ਤੇ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਸੁਰਤਿ ਸਬਦ ਬਿਸਰਜਤ ਉਤ ਤੇ ਬਿਸਮ ਅਸਚਰਜ ਪ੍ਰਸੰਗ ਹੈ ।
इत ते द्रिसटि सुरति सबद बिसरजत उत ते बिसम असचरज प्रसंग है ।

प्रेममय अमृत का रसपान करके गुरु-चेतन व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को सांसारिक मोह-माया से हटाकर उन शक्तियों से जोड़ देता है जो उसे दिव्य सुखों का आनंद लेने में सहायक होती हैं। फलस्वरूप उसे अपने भीतर विचित्र और आश्चर्यजनक अनुभूतियाँ होती हैं।

ਦੇਖੈ ਸੁ ਦਿਖਾਵੈ ਕੈਸੇ ਸੁਨੈ ਸੁ ਸੁਨਾਵੈ ਕੈਸੇ ਚਾਖੇ ਸੋ ਬਤਾਵੇ ਕੈਸੇ ਰਾਗ ਰਸ ਰੰਗ ਹੈ ।
देखै सु दिखावै कैसे सुनै सु सुनावै कैसे चाखे सो बतावे कैसे राग रस रंग है ।

जो कुछ वह स्वयं अनुभव करता है, वह दूसरों को अनुभव नहीं करा सकता। जो संगीत वह स्वयं सुनता है, वह दूसरों को कैसे सुना सकता है? जो नाम-अमृत का स्वाद वह स्वयं लेता है, उसका वर्णन वह दूसरों को कैसे कर सकता है? यह सब केवल वही भोग सकता है।

ਅਕਥ ਕਥਾ ਬਿਨੋਦ ਅੰਗ ਅੰਗ ਥਕਤ ਹੁਇ ਹੇਰਤ ਹਿਰਾਨੀ ਬੂੰਦ ਸਾਗਰ ਸ੍ਰਬੰਗ ਹੈ ।੯੬।
अकथ कथा बिनोद अंग अंग थकत हुइ हेरत हिरानी बूंद सागर स्रबंग है ।९६।

ऐसे व्यक्ति की आत्मिक प्रसन्नता की स्थिति का वर्णन करना असंभव है। इस अवस्था की प्रसन्नता में उसके शरीर का हर अंग स्थिर हो जाता है और वह स्तब्ध हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सद्गुरु के पवित्र चरणों में रहकर ईश्वर रूपी सागर में लीन हो जाता है