मेरे पास न तो अपने अनन्य, तेजस्वी और प्रियतम प्रेमी के दर्शन करने के लिए ज्ञानमय नेत्र हैं और न ही किसी को उसका दर्शन कराने की शक्ति ही है। फिर प्रेमी का दर्शन या दर्शन कैसे हो सकता है?
मुझमें इतनी बुद्धि नहीं है कि मैं अपने प्रियतम के गुणों का वर्णन कर सकूँ, जो सद्गुणों का भण्डार है। न ही मेरे पास उनके गुणगान सुनने के लिए कान हैं। फिर हम गुणों और श्रेष्ठताओं के स्रोत की प्रशंसा कैसे सुनें और सुनाएँ?
मन न तो सच्चे गुरु की शिक्षाओं में रमता है, न ही गुरु के उपदेशों में लीन होता है। गुरु के वचनों में मन स्थिर नहीं होता। फिर उच्च आध्यात्मिक अवस्था में लीन कैसे हो सकता है?
मेरा सारा शरीर दुख रहा है। मुझ दीन और सम्मानहीन में न तो सुंदरता है, न ही उच्च कुल। फिर मैं अपने स्वामी भगवान का सबसे प्रिय प्रेम कैसे बन सकता हूँ और कैसे जाना जा सकता हूँ? (206)