कबित सव्ये भाई गुरदास जी

पृष्ठ - 576


ਯਾਹੀ ਮਸਤਕ ਪੇਖ ਰੀਝਤ ਕੋ ਪ੍ਰਾਨ ਨਾਥ ਹਾਥ ਆਪਨੈ ਬਨਾਇ ਤਿਲਕ ਦਿਖਾਵਤੇ ।
याही मसतक पेख रीझत को प्रान नाथ हाथ आपनै बनाइ तिलक दिखावते ।

मेरे प्रिय गुरुदेव मेरा माथा देखकर प्रसन्न होते थे। उसे पूजते हुए उस पर अभिषेक का चिह्न लगाते थे और मुझसे उसे देखने के लिए कहते थे।

ਯਾਹੀ ਮਸਤਕ ਧਾਰਿ ਹਸਤ ਕਮਲ ਪ੍ਰਿਯ ਪ੍ਰੇਮ ਕਥਿ ਕਥਿ ਕਹਿ ਮਾਨਨ ਮਨਾਵਤੇ ।
याही मसतक धारि हसत कमल प्रिय प्रेम कथि कथि कहि मानन मनावते ।

मेरी प्रेयसी तब अपने कोमल हाथ मेरे माथे पर रखती थी और प्रेम भरी कहानियों से मुझ अहंकारी को प्रसन्न करती थी।

ਯਾਹੀ ਮਸਤਕ ਨਾਹੀ ਨਾਹੀ ਕਰਿ ਭਾਗਤੀ ਹੀ ਧਾਇ ਧਾਇ ਹੇਤ ਕਰਿ ਉਰਹਿ ਲਗਾਵਤੇ ।
याही मसतक नाही नाही करि भागती ही धाइ धाइ हेत करि उरहि लगावते ।

मैं 'नहीं! नहीं!' कहकर भाग जाती थी और मेरा पीछा करते हुए वह बड़े प्यार से मेरा माथा अपनी छाती पर टिकाकर मुझे गले लगाता था।

ਸੋਈ ਮਸਤਕ ਧੁਨਿ ਧੁਨਿ ਪੁਨ ਰੋਇ ਉਠੌਂ ਸ੍ਵਪਨੇ ਹੂ ਨਾਥ ਨਾਹਿ ਦਰਸ ਦਿਖਾਵਤੇ ।੫੭੬।
सोई मसतक धुनि धुनि पुन रोइ उठौं स्वपने हू नाथ नाहि दरस दिखावते ।५७६।

परन्तु अब वियोग होने पर मैं उसी माथे से रोती और विलाप करती हूँ, परन्तु मेरे प्रिय स्वामी मेरे स्वप्न में भी नहीं आते। (५७६)