कब मेरा माथा सच्चे गुरु के चरणों की पवित्र धूल से अभिषेक होगा और कब मैं सच्चे गुरु के दयालु और दयालु चेहरे को अपनी आँखों से देखूंगा?
मैं अपने सद्गुरु के मधुर अमृत-तुल्य अमृतमय वचनों को अपने कानों से कब सुन पाऊँगा? मैं कब अपनी वाणी से उनके समक्ष अपनी व्यथा का विनम्र निवेदन कर पाऊँगा?
मैं कब अपने सच्चे गुरु के सामने दंडवत होकर लेटकर हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम कर सकूंगा? मैं कब अपने सच्चे गुरु की परिक्रमा में अपने पैरों का उपयोग कर सकूंगा?
सच्चे गुरु जो प्रभु के प्रकट स्वरूप हैं, ज्ञान, चिन्तन प्रदान करने वाले, मोक्ष दाता और जीवन के पालनहार हैं, मैं अपनी प्रेममयी भक्ति के द्वारा उनको स्पष्ट रूप से कब अनुभव कर पाऊँगा? (भाई गुरदास द्वितीय अपने गुरु से वियोग की वेदना व्यक्त कर रहे हैं।)